वित्त मंत्रालय लागत गिनता है, किसान कब्रें गिनते हैं
ज़िम्मेदारी को लेकर किसी तरह का भ्रम नहीं होना चाहिए। कृषि मंत्रालय रिपोर्टें तैयार करता है। वित्त मंत्रालय बजटीय सीमाओं का हवाला देता है। वाणिज्य मंत्रालय WTO का बहाना बनाता है। गृह मंत्रालय बैरिकेड्स खड़े करता है और आँसू गैस चलाता है। और प्रधानमंत्री कार्यालय किसानों का खून बहता देखते हुए भी इसे “संवाद” कहकर टाल देता है।
यह शासन नहीं है; यह सुधार के नाम पर ज़िम्मेदारी से बचने का एक सुनियोजित और सामूहिक प्रयास है।
भारतीय किसानों का संकट: क्यों अब ‘मूल’ सुधार टालना संभव नहीं
भारतीय कृषि आज एक गहरे विरोधाभास से गुज़र रही है। यह देश की आजीविका व्यवस्था की रीढ़ है—करीब 42% कार्यबल इसी पर निर्भर है और लगभग 58% ग्रामीण परिवारों की रोज़ी-रोटी इससे चलती है—फिर भी राष्ट्रीय GDP में इसका योगदान केवल 17–18% (2023–24) तक सीमित है। रोज़गार और आर्थिक योगदान के इस असंतुलन में ही भारतीय कृषि संकट की असली जड़ छिपी है।
किसान सबसे ज़्यादा जोखिम उठाते हैं, लेकिन बदले में उन्हें लगातार घटता हुआ लाभ मिलता है। यही असुरक्षा उन्हें कर्ज़ में धकेलती है, सड़कों पर उतरने को मजबूर करती है, पलायन बढ़ाती है और कई बार त्रासदी तक ले जाती है।
किसानों के आंदोलन—चाहे वे दशकों पुराने क्षेत्रीय संघर्ष हों या 2020 के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन—को अलग-थलग राजनीतिक घटनाओं की तरह नहीं देखा जा सकता। ये एक गहरे और लंबे समय से चले आ रहे संरचनात्मक संकट के लक्षण हैं। इस संकट की जड़ें ज़मीन के लगातार बँटवारे, कम उत्पादकता, बढ़ते जलवायु दबाव, बाज़ार की असमानताओं और बार-बार बदलती, अस्थिर नीतियों में हैं।
कई सुधारों की घोषणाओं और प्रयासों के बावजूद, भारतीय कृषि आज भी कम निवेश, अधूरी नीतियों और भविष्य को लेकर अनिश्चितता के बोझ तले दबी हुई है।
भारतीय किसानों के सामने खड़ी बुनियादी समस्याएँ
1. बँटी हुई ज़मीन और सीमित पैमाने की खेती
सबसे बुनियादी समस्या खेतों का छोटा और लगातार सिकुड़ता आकार है। नवीनतम कृषि जनगणना के अनुसार, औसत जोत केवल 1.08 हेक्टेयर है और 86% से अधिक किसान छोटे या सीमांत हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है।
इस तरह का बँटवारा मशीनों और नई तकनीक के इस्तेमाल, सिंचाई और इनपुट्स के कुशल उपयोग, बाज़ार में मोलभाव की ताक़त और कीमतों या मौसम के झटकों को सहने की क्षमता—इन सभी को सीमित कर देता है। नतीजा यह होता है कि छोटे किसान व्यावसायिक खेती के बजाय केवल गुज़ारे भर की खेती तक सीमित रह जाते हैं, और यह उन्हें कम आय के एक अंतहीन चक्र में फँसा देता है।
2. कम उत्पादकता और तकनीकी कमी
भारतीय फ़सलों की पैदावार आज भी वैश्विक मानकों से काफ़ी पीछे है। उदाहरण के तौर पर, धान की औसत पैदावार लगभग 3.5 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि चीन में यह 6–7 टन तक पहुँचती है; गेहूँ और मक्का में भी इसी तरह का अंतर देखने को मिलता है।
इसके पीछे पारंपरिक खेती के तरीकों पर अत्यधिक निर्भरता, सटीक कृषि तकनीक, उच्च गुणवत्ता के बीज और मशीनों तक सीमित पहुँच, तथा कृषि विस्तार सेवाओं की कमजोरी जैसे कारण हैं। आज भी केवल लगभग 47% खेतों में ही मशीनों का इस्तेमाल होता है, और इसका लाभ ज़्यादातर बड़े किसानों तक सीमित है।
कृषि अनुसंधान और विकास पर खर्च कृषि GDP का सिर्फ़ 0.3% है, जबकि वैश्विक औसत लगभग 1% है। इसी कारण नवाचार की गति थमी हुई है।
3. बाज़ार की अस्थिरता और कीमतों का जोखिम
भारतीय किसान ऐसे बाज़ारों में काम करते हैं जहाँ कीमतों में ज़बरदस्त उतार-चढ़ाव रहता है। अक्सर खेती के फ़ैसले पिछली फ़सल की कीमतों के आधार पर लिए जाते हैं, जिससे ज़्यादा उत्पादन, कीमतों का गिरना और मजबूरी में सस्ते दामों पर बिक्री होती है—इसे अर्थशास्त्र में कोबवेब चक्र कहा जाता है।
इस समस्या को और गहरा करने वाली संरचनात्मक कमज़ोरियों में भंडारण और कोल्ड-चेन की भारी कमी, बिचौलियों से भरी लंबी आपूर्ति शृंखलाएँ, और किसान को उपभोक्ता मूल्य का केवल 30–40% ही मिल पाना शामिल है। हालाँकि कुछ फ़सलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मौजूद है, लेकिन इसकी ख़रीद सीमित इलाकों तक सिमटी हुई है, जिससे अधिकांश किसान खुले बाज़ार के जोखिमों के सामने असुरक्षित रहते हैं।
4. सिंचाई की कमी और संसाधनों की असुरक्षा
दशकों के निवेश के बावजूद आज भी केवल 47% कृषि भूमि को ही सुनिश्चित सिंचाई मिल पाती है। शेष खेती अनियमित और बदलते मानसून पर निर्भर रहती है, जिससे कृषि अत्यधिक जलवायु-संवेदनशील बन जाती है और किसान हर मौसम के साथ नए जोखिमों का सामना करने को मजबूर हो जाते हैं।
क्षेत्रीय असमानताएँ: हर जगह हालात एक जैसे नहीं
देश में सिंचाई की स्थिति हर जगह एक जैसी नहीं है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में सिंचाई लगभग हर खेत तक पहुँच चुकी है, जबकि महाराष्ट्र, कर्नाटक और पूर्वी भारत के बड़े हिस्से आज भी मुख्य रूप से बारिश पर निर्भर हैं।
इसके साथ ही, हरित क्रांति वाले इलाकों में भूजल का अत्यधिक दोहन हालात को और बिगाड़ रहा है, जिससे खेती की दीर्घकालिक टिकाऊपन पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
5.जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण पर असर
जलवायु परिवर्तन अब भारतीय कृषि के लिए सबसे बड़ा और निर्णायक ख़तरा बन चुका है। बढ़ता तापमान, अनियमित वर्षा, बाढ़, सूखा और कीट प्रकोप हर साल लगभग ₹1.4 लाख करोड़ का नुकसान पहुँचा रहे हैं।
इसके अलावा, रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि की मिट्टी की सेहत बिगड़ चुकी है। कई गहन खेती वाले इलाकों में भूजल स्तर तेज़ी से गिर रहा है, और एक ही फ़सल पर निर्भर खेती ने जैव विविधता और खेती की सहनशीलता को कमज़ोर कर दिया है।
इन जलवायु झटकों का सबसे ज़्यादा असर छोटे किसानों पर पड़ता है, क्योंकि उनके पास न तो बीमा सुरक्षा होती है और न ही बचत का सहारा।
6. कर्ज़ और किसान संकट
कृषि कर्ज़ आज व्यापक भी है और लगातार बना हुआ भी। लगभग 50% किसान परिवार कर्ज़ में डूबे हुए हैं, और प्रति परिवार औसत बकाया कर्ज़ ₹74,000 से अधिक है।
यह कर्ज़ अक्सर उत्पादक निवेश की बजाय रोज़मर्रा की ज़रूरतों या खेती के इनपुट ख़रीदने में चला जाता है। फ़सल खराब होने या दाम गिरने की स्थिति में यही कर्ज़ जल्दी ही गहरे संकट में बदल जाता है। हर साल 10,000 से अधिक किसान आत्महत्या करते हैं—जो इस पूरे तंत्र की विफलता का सबसे कठोर संकेत है।
7. मज़दूरों की कमी और ग्रामीण पलायन
तेज़ शहरीकरण और गैर-कृषि रोज़गार के बढ़ने से युवा मज़दूर खेती से दूर जा रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि बुवाई और कटाई के समय मज़दूरों की भारी कमी हो जाती है।
इसके कारण मज़दूरी लागत बढ़ रही है, प्रवासी मज़दूरों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, और महिलाओं व बुज़ुर्ग किसानों पर काम का बोझ और ज़्यादा पड़ रहा है।
हालाँकि मशीनों से इस कमी की भरपाई की जा सकती है, लेकिन छोटे किसानों के पास इसके लिए ज़रूरी पूँजी तक पहुँच नहीं होती।
8. लैंगिक और सामाजिक असमानताएँ
भारतीय कृषि में महिलाओं की भूमिका लगातार बढ़ रही है, लेकिन ज़मीन का स्वामित्व अब भी लगभग पूरी तरह पुरुषों के हाथ में है। महिलाओं को ऋण, तकनीक और कृषि विस्तार सेवाओं तक सीमित पहुँच मिल पाती है।
इसके साथ ही सामाजिक पदानुक्रम, जातिगत भेदभाव और क्षेत्रीय असमानताएँ स्थिति को और जटिल बना देती हैं—ख़ासकर बटाईदार किसानों और भूमिहीन मज़दूरों के लिए।
कृषि सुधार: सरकार और किसान आमने-सामने क्यों आ गए
2020 के कृषि क़ानून और उनकी वापसी
2020 में सरकार तीन नए कृषि क़ानून लेकर आई। मक़सद था खेती के बाज़ार को ज़्यादा खुला बनाना—APMC मंडियों के बाहर फसल बेचने की छूट देना, कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग को बढ़ावा देना और ज़रूरी वस्तुओं पर भंडारण की पाबंदियों में ढील देना।
सरकार को उम्मीद थी कि इससे निजी निवेश आएगा और किसानों को अपनी फसल के बेहतर दाम मिलेंगे। लेकिन ये क़ानून किसानों से ठीक से बात किए बिना लागू कर दिए गए। किसानों को लगा कि इससे बड़ी कंपनियों का दबदबा बढ़ेगा, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कमज़ोर पड़ेगा और सरकारी ख़रीद धीरे-धीरे घट जाएगी।
करीब एक साल तक चले ज़ोरदार आंदोलन के बाद 2021 में इन क़ानूनों को वापस लेना पड़ा। इस पूरे घटनाक्रम ने एक बात साफ़ कर दी—किसानों के भरोसे के बिना किया गया कोई भी सुधार ज़्यादा दिन नहीं चल सकता।
मौजूदा सरकारी पहलें: नीति बनी, भरोसा बाकी
कृषि संकट से निपटने और आधुनिकीकरण के लिए कई योजनाएँ चलाई जा रही हैं। PM-KISAN के तहत 12 करोड़ से अधिक किसानों को सालाना ₹6,000 की आय सहायता मिलती है। फसल बीमा योजना जोखिम कम करने की कोशिश करती है, हालाँकि इसका दायरा अब भी सीमित है।
मृदा स्वास्थ्य कार्ड संतुलित उर्वरक उपयोग को बढ़ावा देते हैं, e-NAM मंडियों को डिजिटल रूप से जोड़ता है, और कृषि अवसंरचना कोष के तहत ₹1 लाख करोड़ का निवेश स्टोरेज और लॉजिस्टिक्स के लिए रखा गया है।
2025 के केंद्रीय बजट में कृषि के लिए ₹1.52 लाख करोड़ का प्रावधान किया गया है, जिसमें जलवायु सहनशीलता, मशीनरी और विविधीकरण पर ज़ोर दिया गया है।
ज़मीनी अमल की लगातार चुनौतियाँ
इतनी योजनाओं के बावजूद कई खामियाँ बनी हुई हैं। सबसे छोटे किसानों तक लाभ नहीं पहुँच पाता, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म कनेक्टिविटी और साक्षरता की समस्याओं से जूझते हैं, बीमा भुगतान में देरी होती है, और बाज़ार सुधार राज्यों में बिखरे हुए हैं।
आलोचकों का मानना है कि सुधारों का ज़ोर बाज़ार खोलने पर ज़्यादा रहा है, किसानों की सौदेबाज़ी ताक़त और संस्थागत समर्थन मज़बूत करने पर कम।
निष्कर्ष: सुधार नहीं, समाधान चाहिए
भारत का कृषि संकट अचानक पैदा नहीं हुआ है। यह एक गहराई तक फैली समस्या है, जो सालों से धीरे-धीरे बढ़ती रही है। इसलिए इसका हल भी केवल तात्कालिक राहत में नहीं, बल्कि व्यवस्था में बुनियादी बदलाव में ही छिपा है।
अब ज़रूरत है कि प्राथमिकताएँ साफ़ की जाएँ—कृषि अनुसंधान और विस्तार सेवाओं को मज़बूत किया जाए, किसान उत्पादक संगठनों को वास्तविक ताक़त दी जाए, किसानों को भरोसेमंद दाम और जोखिम से सुरक्षा मिले, जलवायु के अनुसार खेती को बढ़ावा दिया जाए, और सबसे ज़रूरी—सुधार आदेश से नहीं, संवाद से किए जाएँ।
भारतीय कृषि का भविष्य केवल खाने की सुरक्षा तक सीमित नहीं है। यह देश की सामाजिक स्थिरता, ग्रामीण समृद्धि और समावेशी विकास की दिशा तय करता है। अगर निर्णायक और सबको साथ लेकर चलने वाले सुधार नहीं हुए, तो किसान संकट भारत की विकास की आकांक्षाओं को लगातार कमज़ोर करता रहेगा।
खेती पर निर्भर ज़िंदगी: आँकड़ों से आगे की हक़ीक़त
भारत की कृषि पर निर्भरता को केवल उत्पादन या रोज़गार के आँकड़ों से नहीं समझा जा सकता। इसे बेहतर ढंग से कृषि परिवारों की संरचना और कार्यबल की निर्भरता से समझा जा सकता है।
NABARD के ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वे (NAFIS) 2016–17 के अनुसार, कृषि परिवार वह है जिसकी सालाना कमाई का कम से कम ₹5,000 कृषि या उससे जुड़ी गतिविधियों से आता हो, और जिसमें कम से कम एक सदस्य पिछले एक साल में खेती से स्वयं रोज़गार करता रहा हो।
इस परिभाषा में केवल ज़मीन के मालिक ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मत्स्य पालन और बागवानी जैसे सहायक कार्यों पर निर्भर परिवार भी शामिल हैं—और यही बताता है कि भारत में खेती से जुड़ी असुरक्षा कितनी व्यापक है।
राज्यों में असमान बुनियादी बदलाव
राज्यवार आँकड़े साफ़ दिखाते हैं कि भारत में आर्थिक विविधीकरण की रफ्तार हर जगह एक जैसी नहीं रही है। जहाँ कृषि परिवारों का अनुपात ज़्यादा है, वहाँ गैर-कृषि रोज़गार के अवसर कम हैं और किसान जलवायु, कीमतों और नीतिगत झटकों के प्रति ज़्यादा असुरक्षित रहते हैं।
तमिलनाडु (12.8%), महाराष्ट्र (36%) और आंध्र प्रदेश (33.6%) जैसे औद्योगिक और सेवा-प्रधान राज्यों में कृषि पर निर्भरता अपेक्षाकृत कम है। इन राज्यों को विनिर्माण, शहरीकरण और सेवा क्षेत्र के विस्तार का लाभ मिला है, जिससे ग्रामीण परिवार खेती के अलावा भी आय के स्रोत बना पाए हैं।
इसके उलट उत्तर प्रदेश (62.7%), राजस्थान (63.3%) और मध्य प्रदेश (57.9%) जैसे राज्य आज भी बड़े पैमाने पर कृषि पर निर्भर हैं। यहाँ खेती अक्सर आजीविका का मुख्य—कई बार एकमात्र—साधन बनी हुई है, जबकि मुनाफ़ा लगातार घट रहा है। वैकल्पिक रोज़गार के अभाव में परिवार कम उत्पादक खेती में फँसे रहते हैं, और फ़सल खराब होने या बाज़ार गिरने पर संकट कई गुना बढ़ जाता है।
यह अंतर एक मूल संरचनात्मक समस्या की ओर इशारा करता है—भारत का कृषि संकट एक जैसा नहीं है। यह गहराई से क्षेत्रीय है और देश के बड़े हिस्सों में रुके हुए संरचनात्मक बदलाव से जुड़ा हुआ है।
बोनी से पहले तय होता है किसान का भविष्य
(उत्पादन से पहले की असल चुनौतियाँ)
किसानों की आर्थिक हालत बोनी से बहुत पहले तय होने लगती है। ज़मीन का आकार, मज़दूरों की उपलब्धता, सिंचाई की स्थिति और बीज-खाद जैसे इनपुट का प्रबंधन ही यह तय करता है कि खेती कितनी महंगी पड़ेगी, पैदावार कैसी होगी और किसान मुश्किल समय को कितनी मजबूती से झेल पाएगा।
परिचालन जोतें: ज़मीन का बिखराव एक स्थायी बाधा
10वीं कृषि जनगणना (2015–16) के आँकड़े भारत में खेती की सबसे बड़ी समस्या—ज़मीन के अत्यधिक बिखराव—को साफ़ तौर पर दिखाते हैं। देश में कुल 14.64 करोड़ परिचालन जोतें थीं, जो लगभग 15.78 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में फैली हुई थीं। इनमें से 86.2 प्रतिशत जोतें छोटी और सीमांत थीं, यानी दो हेक्टेयर से कम ज़मीन वाली, लेकिन इनके पास कुल कृषि भूमि का सिर्फ़ 47.34 प्रतिशत हिस्सा ही था।
इसके उलट, दो से दस हेक्टेयर ज़मीन वाली मध्यम जोतें कुल जोतों का केवल 13.2 प्रतिशत थीं, लेकिन उनके पास 43.6 प्रतिशत कृषि भूमि थी। वहीं, दस हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाली बड़ी जोतें मात्र 0.57 प्रतिशत थीं, फिर भी उनके हिस्से में 9.04 प्रतिशत भूमि थी।
औसत जोत का आकार भी लगातार घटता गया। वर्ष 2010–11 में जहाँ यह 1.15 हेक्टेयर था, वहीं 2015–16 तक घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया। यह गिरावट पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़मीन के बँटवारे की सच्चाई को दर्शाती है।
इस बिखराव का सीधा असर खेती पर पड़ता है। छोटी जोतों में मशीनीकरण कठिन हो जाता है, लागत बढ़ जाती है, सिंचाई की योजना बनाना मुश्किल होता है और फ़सल विविधीकरण की गुंजाइश भी सीमित रह जाती है। नतीजा यह होता है कि किसान कम पैदावार और कम आमदनी के दायरे में फँसा रह जाता है।
खेती में महिलाएँ: ज़िम्मेदारी बढ़ी, सुविधाएँ नहीं
एक कम चर्चित लेकिन अहम बदलाव यह है कि खेती में महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है। 2010–11 से 2015–16 के बीच महिला परिचालन धारकों का अनुपात 12.79% से बढ़कर 13.87% हो गया, और उनके द्वारा संचालित क्षेत्र 10.36% से बढ़कर 11.57% तक पहुँचा।
हालाँकि यह महिलाओं की भूमिका की मान्यता को दिखाता है, लेकिन इसका एक बड़ा कारण पुरुषों का शहरों की ओर पलायन भी है। महिलाएँ अक्सर सीमित ऋण, तकनीक, ज़मीन के अधिकार और मशीनों की कमी के साथ खेती संभालती हैं। इससे सशक्तिकरण से ज़्यादा बिना मज़दूरी का बोझ और उत्पादकता ठहराव देखने को मिलता है।
ज़मीन का इस्तेमाल, फ़सल चक्र और सिंचाई
भारत का शुद्ध बोया गया क्षेत्र 1950–51 के 11.9 करोड़ हेक्टेयर से बढ़कर लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर हुआ है—यानी ज़मीन का विस्तार सीमित रहा है। खेती की बढ़त ज़्यादातर तीव्रता बढ़ाने से आई है।
फ़सल तीव्रता 111% से बढ़कर 141% से ऊपर पहुँची है, जिसका कारण मशीनीकरण, सिंचाई विस्तार और कम अवधि वाली किस्मों का उपयोग है।
खेती में ताक़त का बदलता संतुलन
खेती में इस्तेमाल होने वाली शक्ति का स्वरूप तेज़ी से बदला है। ट्रैक्टरों का उपयोग 6.8% से बढ़कर 45.8% हो गया है, बिजली मोटरों का उपयोग 14% से बढ़कर 26.8% तक पहुँच गया है, जबकि पशु शक्ति और मानव श्रम में तेज़ गिरावट आई है।
इससे उत्पादकता तो बढ़ी, लेकिन साथ ही पूँजी, बिजली और ईंधन पर निर्भरता भी बढ़ी—जिसका बोझ छोटे किसानों पर ज़्यादा पड़ा।
सिंचाई और पैदावार: हर राज्य की अलग कहानी
सिंचाई और फ़सल तीव्रता राज्यों में बहुत अलग-अलग है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार राष्ट्रीय औसत से ऊपर हैं, क्योंकि वहाँ सिंचाई और उपजाऊ मिट्टी उपलब्ध है।
वहीं गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र, असम और केरल बड़े पैमाने पर वर्षा आधारित हैं। पंजाब और हरियाणा लगभग 100% सिंचित हैं, जबकि वर्षा आधारित राज्यों में उत्पादन का जोखिम और अस्थिरता ज़्यादा है। यही कारण है कि किसान आय और कृषि विकास में राज्यों के बीच बड़ा अंतर दिखता है।
फ़सल का चुनाव: मेहनत ज़्यादा, आमदनी कम
भारत में खेती का पैटर्न अब भी अनाज-केंद्रित है। कुल बोए गए क्षेत्र का 62% से अधिक हिस्सा खाद्यान्नों में है, गैर-खाद्य फ़सलें लगभग 28% और तिलहन लगभग 8% हैं।
हालाँकि इससे खाद्य सुरक्षा बनी रहती है, लेकिन किसानों की आय विविध नहीं हो पाती। अनाज पर अधिक निर्भरता छोटे किसानों को कीमतों के उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील बनाती है और उच्च मूल्य वाली बागवानी व अन्य गतिविधियों में जाने से रोकती है।
खाद, बीज और लागत का बढ़ता बोझ
बीज, खाद, कीटनाशक, पानी और मशीनें—ये सब पैदावार और लागत दोनों तय करते हैं। लेकिन इनका उपयोग असमान और अक्सर अव्यवस्थित है।
उत्तर और दक्षिण भारत में उर्वरक उपयोग राष्ट्रीय औसत से अधिक है, जबकि पूर्व और उत्तर-पूर्व पीछे हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के बाद दक्षिणी राज्यों में उर्वरक उपयोग 191.8 किग्रा/हेक्टेयर से घटकर 152.7 किग्रा/हेक्टेयर हुआ, लेकिन कई अन्य राज्यों में अब भी अत्यधिक और असंतुलित उपयोग जारी है।
पंजाब और हरियाणा में 90% से अधिक क्षेत्र में उर्वरक डाले जाते हैं, जबकि राजस्थान में यह लगभग 60% है। अत्यधिक नाइट्रोजन उपयोग से मिट्टी की गुणवत्ता और उत्पादकता दोनों गिर रही हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड इसका समाधान देना चाहते हैं, लेकिन ज़मीनी अपनाने की गति असमान है।
निष्कर्ष: खेती सुधरेगी, तभी किसान बचेगा
भारत की कृषि आज भी गहरी बुनियादी समस्याओं में उलझी हुई है—खेती पर अत्यधिक निर्भरता, बिखरी हुई ज़मीन, असमान सिंचाई, सीमित फ़सल विकल्प और खाद-बीज का असंतुलित उपयोग। तकनीक और मशीनों का इस्तेमाल बढ़ा है, लेकिन छोटे किसानों की आय और सुरक्षा में वैसा सुधार नहीं दिखता।
किसान कल्याण के लिए सुधार बोनी से पहले शुरू होने चाहिए—ज़मीन का समेकन और सामूहिक खेती को बढ़ावा, वर्षा पर निर्भर इलाकों में सिंचाई का विस्तार, संतुलित इनपुट उपयोग, फ़सल विविधीकरण और मज़बूत कृषि विस्तार सेवाएँ ज़रूरी हैं।
जब तक इन बुनियादी रुकावटों को दूर नहीं किया जाएगा, कटाई के बाद की योजनाएँ और दाम समर्थन केवल थोड़ी देर की राहत ही दे पाएँगे। टिकाऊ कृषि बदलाव की शुरुआत खेत में बीज पड़ने से पहले करनी होगी।
अब फैसला करना होगा
भारत पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था किसानों की टूटी हुई पीठ पर खड़ी नहीं कर सकता। कृषि संकट सिर्फ़ गाँवों की समस्या नहीं है; यह एक राष्ट्रीय आपात स्थिति है। ज़मीन का बिखराव, जलवायु का बढ़ता जोखिम, कर्ज़ का दबाव और बाज़ार में शोषण—ये समस्याएँ नई नहीं हैं। इनके समाधान भी सबको मालूम हैं। जो सबसे बड़ी कमी रही है, वह है राजनीतिक साहस, दूर की सोच और ईमानदार संवेदनशीलता।
अगर सुधार अधूरे, दिखावटी या ऊपर से थोपे गए ही रहे, तो किसान संकट बना रहेगा—और उसके साथ सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी। लेकिन अगर भारत समावेशी, सुरक्षा देने वाले और भविष्य को ध्यान में रखकर सुधार करता है, तो खेती फिर से सम्मान, स्थिरता और विकास का आधार बन सकती है। किसान को दया नहीं चाहिए। किसान को न्याय, सुरक्षा और भविष्य चाहिए।
भारतीय किसानों का स्वास्थ्य और सामाजिक संकट: व्यवस्था कहाँ चूकी
आज भारत के किसान सिर्फ़ कम आय या फ़सल खराब होने से नहीं जूझ रहे हैं। उनका संकट शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक—हर स्तर पर है। कृषि आज भी देश की लगभग 45% आबादी को रोज़गार देती है, लेकिन GDP में उसका योगदान केवल 17–18% है। यही असंतुलन किसानों को ज़्यादा मेहनत, कम कमाई और गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों की ओर धकेलता है। यह अलग-अलग परेशानियों की सूची नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था की तस्वीर है जो धीरे-धीरे अपने ही आधार को तोड़ रही है।
खेती: एक ख़तरनाक पेशा, सुरक्षा के बिना
भारत में खेती सबसे जोखिम भरे कामों में से एक है, लेकिन सुरक्षा के लिहाज़ से सबसे कमज़ोर भी। स्वास्थ्य जोखिम आम हैं, इलाज तक पहुँच सीमित है और रोकथाम की व्यवस्था लगभग नदारद।
1. काम से जुड़ी चोटें और शारीरिक नुकसान
साँप के काटने, काँटों से ज़ख़्म, त्वचा संक्रमण, हड्डी टूटना और रीढ़ से जुड़ी समस्याएँ किसानों की रोज़मर्रा की हक़ीक़त हैं। बिना सुरक्षा उपकरण लंबे समय तक मेहनत करना चोट को लगभग तय बना देता है। राजस्थान, महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे गर्म इलाकों में लू, डिहाइड्रेशन और थकावट हर साल दोहराने वाली समस्या बन चुकी है।
सबसे बड़ी समस्या चोट नहीं, इलाज की कमी है। केवल लगभग 37% गाँवों में ही ठीक से काम करने वाली चिकित्सा सुविधाएँ हैं। नतीजा यह कि छोटी चोटें भी अपंगता में बदल जाती हैं।
2. मानसिक स्वास्थ्य का गंभीर संकट
खेती का मानसिक दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। फ़सल खराब होना, कर्ज़ का फंदा, सामाजिक तिरस्कार और अकेलापन अवसाद और चिंता को जन्म देते हैं। इसका सबसे डरावना संकेत है—हर साल 10,000 से ज़्यादा किसानों की आत्महत्या। महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में ये आँकड़े लगातार ऊँचे रहते हैं।
2023–2025 के दौरान अनिश्चित मानसून, बाज़ार अस्थिरता और बढ़ती लागत ने छोटे और सीमांत किसानों पर मानसिक दबाव और बढ़ा दिया है।
3. रसायन और पर्यावरण से जुड़ा ख़तरा
कीटनाशकों का असुरक्षित और अत्यधिक उपयोग साँस की बीमारियों, तंत्रिका तंत्र की समस्याओं, त्वचा रोगों और लंबे समय में कैंसर तक का कारण बनता है। महिलाएँ, बच्चे और बुज़ुर्ग—जो अक्सर खेत के काम में शामिल रहते हैं—इसका सबसे ज़्यादा नुकसान झेलते हैं।
जलवायु परिवर्तन इन ख़तरों को और बढ़ा रहा है। बाढ़, सूखा, चक्रवात और बेमौसम बारिश सिर्फ़ फ़सल नहीं तबाह करते, बल्कि कुपोषण, जलजनित बीमारियाँ और पुरानी बीमारियाँ भी बढ़ाते हैं।
4. इलाज तक पहुँचना अब भी मुश्किल
प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना जैसी योजनाएँ होने के बावजूद, कवरेज अधूरी है। केवल लगभग 60% किसानों के पास किसी न किसी तरह का स्वास्थ्य बीमा है। ग्रामीण इलाकों में इलाज का लगभग 70% खर्च जेब से होता है। नतीजा—बीमारी का इलाज टलता है और कर्ज़ और गहरा हो जाता है।
सामाजिक हालात: ग़रीबी, असमानता और बिखरता समाज
स्वास्थ्य की तकलीफ़ें सामाजिक हालात से अलग नहीं हैं। ग़रीबी, असमानता और कमजोर शासन ने पीढ़ियों तक चलने वाला संकट खड़ा कर दिया है।
1. कर्ज़ और आर्थिक असुरक्षा
लगभग आधे कृषि परिवार कर्ज़ में डूबे हैं। औसतन कर्ज़ ₹74,000 से ज़्यादा है। किसान अपनी उपज की अंतिम कीमत का केवल 30–40% ही पा पाते हैं। आंध्र प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध राज्यों में भी किसान भारी कर्ज़ के साथ जी रहे हैं।
2. ज़मीन का बिखराव और मज़दूरों की कमी
लगभग 88% जोतें दो हेक्टेयर से छोटी हैं। ऐसे में मशीनीकरण मुश्किल है और युवा शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। खेती का बोझ अब ज़्यादातर महिलाओं और बुज़ुर्गों पर है—अक्सर बिना ज़मीन के अधिकार और संस्थागत सहयोग के।
3. जाति और लैंगिक असमानता
दलित और आदिवासी, जो कृषि मज़दूरों का बड़ा हिस्सा हैं, कम ज़मीन और कम अवसर पाते हैं। महिलाएँ कृषि कार्यबल का लगभग एक-तिहाई हैं, लेकिन ज़मीन के काग़ज़ न होने से वे फैसलों, बीमा और ऋण से बाहर रह जाती हैं।
4. पलायन और परिवारों का टूटना
हर साल तीन करोड़ से ज़्यादा ग्रामीण रोज़गार की तलाश में पलायन करते हैं। इससे परिवार टूटते हैं, बच्चों पर काम का बोझ बढ़ता है और सामाजिक सहारा कमजोर पड़ता है।
5. नीतियाँ हैं, भरोसा नहीं
PM-KISAN जैसी योजनाएँ थोड़ी राहत देती हैं, लेकिन मूल नुकसान की भरपाई नहीं करतीं। MSP की कानूनी गारंटी की माँग इसी अविश्वास का नतीजा है। शासन अक्सर संकट के बाद प्रतिक्रिया देता है, पहले से रोकने में नाकाम रहता है।
निष्कर्ष: सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई
भारतीय किसानों का यह संकट प्राकृतिक नहीं है। यह उपेक्षा, असमान विकास और नीतिगत जड़ता का नतीजा है। खेती को ऐसा पेशा बना दिया गया है जहाँ चोट आम बात है, बीमारी को नज़रअंदाज़ किया जाता है, कर्ज़ रोज़मर्रा की सच्चाई है और निराशा कई बार जानलेवा साबित होती है।
जब तक सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा, मानसिक स्वास्थ्य सहायता, कर्ज़ से राहत, न्यायपूर्ण ज़मीन नीतियाँ और किसान-केंद्रित शासन नहीं होगा, यह संकट और गहराता जाएगा।
भारत तब तक प्रगति का दावा नहीं कर सकता, जब तक देश को खिलाने वाले लोग कर्ज़ और बीमारी, पलायन और आत्महत्या के बीच चुनाव करने को मजबूर हों। यह सिर्फ़ खेती का संकट नहीं है। यह एक राष्ट्रीय विफलता है—जिसकी कीमत आँकड़ों में नहीं, बल्कि टूटती ज़िंदगियों में चुकाई जा रही है।
आंदोलन कैसे आगे बढ़ा
फ़रवरी 2024: ‘दिल्ली चलो’ मार्च
13 फ़रवरी 2024 को पंजाब और हरियाणा के किसानों ने एक बार फिर दिल्ली की ओर कूच किया। हज़ारों किसान ट्रैक्टरों के साथ सड़कों पर उतरे। सरकार ने पहले से तैयारी करते हुए शंभू और खनौरी जैसे बॉर्डर सील कर दिए, भारी बैरिकेड लगाए गए और निषेधाज्ञा लागू कर दी गई।
टकराव और तनाव
16 से 23 फ़रवरी के बीच कई सीमा बिंदुओं पर झड़पें हुईं। पुलिस ने आँसू गैस, रबर की गोलियाँ और ड्रोन का इस्तेमाल किया। कई किसान घायल हुए और इस दौरान कम से कम पाँच मौतों की खबरें आईं। इनमें 21 साल के एक युवक की मौत आंदोलन के लिए बड़ा मोड़ बन गई और गुस्सा और बढ़ गया।
हरियाणा के कुछ इलाकों में इंटरनेट बंद किया गया, लोगों की आवाजाही रोकी गई। इससे किसानों को यह महसूस हुआ कि उन्हें घेरा जा रहा है, और नाराज़गी और गहरी हो गई।
लंबा गतिरोध (2024–2025)
बीच-बीच में बातचीत हुई, लेकिन कोई ठोस सहमति नहीं बन पाई। सरकार ने दालों और मक्का जैसी कुछ फ़सलों के लिए पाँच साल तक सुनिश्चित MSP खरीद का प्रस्ताव रखा, लेकिन किसानों ने इसे अधूरा और चुनिंदा बताया।
2025 के अंत तक आंदोलन रुक-रुक कर चलता रहा—कहीं सड़क जाम, कहीं ट्रैक्टर धरना, और समय-समय पर देशभर में समर्थन की अपीलें होती रहीं।
किसानों की माँगें: वे क्या चाहते हैं
किसान संगठनों की माँगें अलग-अलग नहीं, बल्कि एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ये किसी एक नीति से ज़्यादा आर्थिक असुरक्षा की चिंता को दिखाती हैं:
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सभी फ़सलों के लिए MSP की कानूनी गारंटी
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छोटे और सीमांत किसानों के लिए पूरा कर्ज़ माफ़ी
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स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करना
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किसानों के लिए वृद्धावस्था पेंशन
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ग्रामीण रोज़गार योजनाओं का विस्तार और बेहतर मज़दूरी
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पुराने आंदोलनों में दर्ज मुक़दमों की वापसी
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आंदोलन के दौरान हुई मौतों के लिए न्याय और मुआवज़ा
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किसानों की स्वायत्तता को नुकसान पहुँचाने वाली नीतियों—जैसे बिजली और व्यापार से जुड़े कुछ प्रावधानों—को वापस लेना
इन सबका सार यही है: किसानों को स्थिर आमदनी, सम्मान और जवाबदेह व्यवस्था चाहिए।
सरकार की प्रतिक्रिया: बातचीत, लेकिन समाधान नहीं
सरकार बार-बार संवाद की बात करती रही। समितियाँ बनीं, कई दौर की बैठकें हुईं। लेकिन साथ ही बॉर्डर पर कड़ी सुरक्षा, इंटरनेट बंद करना और बल प्रयोग जारी रहा। इस वजह से यह आलोचना हुई कि सरकार समाधान से ज़्यादा नियंत्रण पर ज़ोर दे रही है।
किसानों को बातचीत औपचारिक लगती रही—जैसे दबाव कम करने की कोशिश हो, असली मुद्दों को सुलझाने की नहीं। MSP पर साफ़ और ठोस वादा न होना पूरे आंदोलन का सबसे बड़ा विवाद बिंदु बन गया।
व्यापक असर और महत्त्व
मानवीय और आर्थिक कीमत
आंदोलन में मौतें हुईं, लोग घायल हुए, यातायात और आपूर्ति शृंखलाएँ प्रभावित हुईं। लेकिन किसानों का कहना है कि ये नुकसान उस रोज़मर्रा के घाटे के सामने कुछ भी नहीं हैं, जो उन्हें खेती से उठाना पड़ता है।
राजनीतिक और सामाजिक असर
इस आंदोलन ने किसानों को फिर से एक बड़ी राजनीतिक ताक़त के रूप में सामने ला दिया, ख़ासकर उत्तर भारत में। इसने खेती को “डूबता हुआ क्षेत्र” बताने वाली सोच को चुनौती दी और कृषि संकट को फिर से राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला दिया।
एक गहरा संकट सामने आया
तुरंत की माँगों से आगे यह आंदोलन एक बड़ी सच्चाई दिखाता है—भारतीय खेती अब भी कमजोर ढाँचे पर टिकी है। यह मानसून पर बहुत ज़्यादा निर्भर है, ज़मीन बंटी हुई है और बाज़ार का जोखिम सबसे छोटे किसान पर डाल दिया जाता है।
आकलन: हिसाब अभी बाकी है
2024–2025 का किसान आंदोलन कोई अपवाद नहीं है। यह अधूरे पड़े कृषि सुधारों का नतीजा है। MSP की कानूनी गारंटी की माँग किसानों की उस बेचैनी को दिखाती है, जो लगातार अनिश्चित होती ज़िंदगी से पैदा हुई है। वहीं सरकार का धीमा और सतर्क रवैया यह बताता है कि वह ऐसे फ़ैसलों के आर्थिक और ढाँचागत असर से बचना चाहती है।
जब तक खेती ज़्यादातर किसानों के लिए घाटे का सौदा बनी रहेगी, आंदोलन बार-बार होंगे—कभी दिल्ली के बॉर्डर पर, कभी कहीं और। यह टकराव सिर्फ़ नीतियों का नहीं है, बल्कि इस सवाल का है कि क्या भारत खेती को जीने लायक पेशा मानने को तैयार है, या सिर्फ़ संकट में संभालने वाला क्षेत्र। जब तक इस सवाल का जवाब काम में नहीं बदलेगा, खेत अनाज के साथ-साथ असंतोष भी पैदा करते रहेंगे।
भारत में कानूनी MSP की माँग: सब्सिडी नहीं, ज़िंदा रहने की लड़ाई
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को क़ानूनी अधिकार बनाने की माँग आज किसानों और सरकार के बीच सबसे साफ़ टकराव की रेखा बन चुकी है। यह फ़सलों के दाम की कोई तकनीकी बहस नहीं है, न ही मुफ़्त मदद की माँग। यह सीधी लड़ाई है आर्थिक अस्तित्व, मोलभाव की ताक़त और इस सवाल पर कि क्या छोटे किसान के लिए भारत में खेती का कोई भविष्य बचा है या नहीं।
2024–2025 के किसान आंदोलनों में इस माँग का दोबारा उभरना एक कड़वी सच्चाई दिखाता है—बिना तय दाम की सुरक्षा के खेती लाखों लोगों के लिए अब जीने लायक पेशा नहीं रह गई है।
MSP और असंतोष की लंबी कहानी: वादा बना, अधिकार नहीं
MSP की शुरुआत 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान हुई थी, ताकि अनाज उत्पादन बढ़े और देश की खाद्य सुरक्षा बनी रहे। हर साल इसके दाम कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) सुझाता है। लेकिन MSP को कभी क़ानूनी दर्जा नहीं दिया गया। यह सलाह रही, किसान का अधिकार नहीं।
असलियत यह है कि सरकारी खरीद ज़्यादातर गेहूं और धान तक सीमित रही, और वह भी पंजाब व हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में। 23 फ़सलों के लिए MSP घोषित होने के बावजूद, करीब 94% किसान अपनी फ़सल MSP पर बेच ही नहीं पाते। उनके लिए MSP सिर्फ़ काग़ज़ पर मौजूद है।
1990 के दशक के बाद आर्थिक उदारीकरण के साथ यह दूरी और बढ़ी। खेती से सरकारी दख़ल कम हुआ, लेकिन किसान अस्थिर घरेलू और वैश्विक बाज़ारों के हवाले कर दिए गए। यह असंतुलन अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।
2020 के कृषि क़ानूनों ने इस डर को और गहरा कर दिया। 2021 में ऐतिहासिक आंदोलन के बाद क़ानून तो वापस ले लिए गए, लेकिन किसानों का कहना है कि MSP को लेकर दिए गए वादे कभी पूरे नहीं हुए। 2022 में बनी समिति भी किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुँची। इससे यह धारणा और मज़बूत हुई कि सरकार सुधार नहीं, सिर्फ़ टालमटोल कर रही है।
किसान MSP को क़ानूनी हक़ क्यों चाहते हैं
इस माँग के केंद्र में एक सीधी बात है—बिना भरोसेमंद और लाभकारी दाम के खेती चल ही नहीं सकती।
1. आमदनी की सुरक्षा और असली लागत की भरपाई
किसानों की माँग है कि MSP को स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के मुताबिक़ पूरी लागत (C2) से 50% ज़्यादा तय किया जाए। अभी MSP ज़्यादातर A2+FL पर आधारित होता है, जिसमें ज़मीन का किराया और पूंजी की लागत शामिल नहीं होती।
नतीजा यह है कि कई मामलों में MSP असली खर्च भी नहीं निकाल पाता, मुनाफ़े की तो बात ही दूर है।
2. बाज़ार के उतार-चढ़ाव से बचाव
ज़्यादातर राज्यों में किसान ऐसे बाज़ारों में बेचने को मजबूर हैं, जहाँ दाम अक्सर MSP से नीचे गिर जाते हैं। क़ानूनी ताक़त न होने के कारण MSP सिर्फ़ एक संदर्भ मूल्य बनकर रह जाता है।
किसानों का कहना है कि अगर MSP क़ानूनी होगा, तो या तो सरकार को खरीद करनी पड़ेगी, या MSP से कम दाम देने वालों पर कार्रवाई होगी। इससे बिचौलियों और व्यापारियों का शोषण रुकेगा।
3. कर्ज़, बदहाली और जानलेवा संकट
करीब आधे किसान परिवार कर्ज़ में डूबे हैं। औसत कर्ज़ ₹74,000 से ज़्यादा है। जब दाम गिरते हैं, तो उधार लेना मजबूरी बन जाता है, फ़सल औने-पौने दाम पर बिकती है और निराशा जानलेवा हो जाती है। हर साल 10,000 से ज़्यादा किसान आत्महत्या करते हैं।
कानूनी MSP को किसान एक ढाँचागत सुरक्षा मानते हैं—ऐसी दीवार, जो गिरावट को उस हद तक पहुँचने से पहले रोक सके।
4. कृषि न्याय: एक ज़रूरी सवाल
MSP की माँग अकेली नहीं है। यह कर्ज़ माफ़ी, बुज़ुर्ग किसानों की पेंशन, पुराने मुक़दमों की वापसी और लंबे समय से लटके सुधारों से जुड़ी हुई है। MSP अब सम्मान, स्थिरता और न्याय की पूरी लड़ाई का केंद्र बन चुका है
2024–2025 का किसान आंदोलन: MSP सबसे बड़ा मुद्दा
फ़रवरी 2024 में संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) और किसान मज़दूर मोर्चा (KMM) जैसे संगठनों ने ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन फिर से शुरू किया। पंजाब और हरियाणा से हज़ारों किसान ट्रैक्टरों के साथ निकले, उनकी माँग साफ़ थी—कानूनी MSP।
सरकार की प्रतिक्रिया—बैरिकेड, आँसू गैस, ड्रोन, हिरासत और इंटरनेट बंद—ने भरोसा और तोड़ दिया। कई किसानों की जान गई, सैकड़ों घायल हुए और बातचीत ठप पड़ी रही। पाँच साल की सीमित MSP खरीद जैसे प्रस्ताव किसानों ने टालने की चाल बताया।
2025 के अंत तक आंदोलन रुक-रुक कर चलता रहा। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से गंभीर बातचीत की कमी पर सवाल उठाए।
सरकार का विरोध और उसकी सीमाएँ
केंद्र सरकार का तर्क है कि पूरी MSP गारंटी आर्थिक और व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। अनुमान है कि इसकी लागत सालाना ₹10–12 लाख करोड़ हो सकती है, महँगाई बढ़ सकती है और WTO नियमों से टकराव हो सकता है।
किसान इस तर्क को ख़ारिज करते हैं। उनका कहना है कि देश पहले से खाद्य सब्सिडी पर भारी खर्च करता है, फिर भी किसान गरीब हैं। WTO नियम खाद्य सुरक्षा और आजीविका की रक्षा की अनुमति देते हैं। महँगाई को चरणबद्ध खरीद और फ़सल विविधीकरण से संभाला जा सकता है।
किसानों की नज़र में यह सतर्कता नहीं, बल्कि खेती की गहरी असमानताओं से बचने की कोशिश है।
MSP से आगे: लागू करने की चुनौतियाँ, जो माँग को और मज़बूत करती हैं
कानूनी MSP के बाद भी दिक़्क़तें रहेंगी—कमज़ोर खरीद व्यवस्था, सीमित मंडियाँ, स्टोरेज और लॉजिस्टिक्स की कमी। लेकिन ये MSP के ख़िलाफ़ तर्क नहीं हैं। ये सरकार की क्षमता मज़बूत करने की ज़रूरत बताते हैं।
मज़बूत सार्वजनिक व्यवस्था के बिना बाज़ार की ताक़तें छोटे किसानों को कुचलती रहेंगी।
विकल्प और आगे का रास्ता
कुछ पूरक उपायों पर अक्सर चर्चा होती है—
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फ़सल या क्षेत्र आधारित MSP
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किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को मज़बूत करना
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जहाँ खरीद संभव न हो, वहाँ मूल्य अंतर भुगतान
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सिंचाई, भंडारण और प्रोसेसिंग में निवेश
किसान इन उपायों के ख़िलाफ़ नहीं हैं। वे सिर्फ़ इतना कहते हैं कि इनमें से कोई भी क़ानूनी MSP की जगह नहीं ले सकता—ये केवल सहायक हो सकते हैं।
निष्कर्ष: MSP आख़िरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा है
कानूनी MSP की माँग किसी विशेषाधिकार की माँग नहीं है। यह उस अर्थव्यवस्था में ज़िंदा रहने की कोशिश है, जहाँ हर जोखिम किसान उठाता है और फ़ायदा कहीं और चला जाता है। MSP से बचना दिखाता है कि खेती को फिर से राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाने में असहजता है।
2024–2025 के आंदोलनों ने साफ़ कह दिया है—बिना ठोस आमदनी सुरक्षा के खेती से रोज़गार, सम्मान और भरोसा लगातार बहता रहेगा। MSP कोई आदर्श समाधान न भी हो, लेकिन कुछ न करना पहले ही विनाशकारी साबित हो चुका है।
अब सवाल यह नहीं है कि भारत कानूनी MSP का ख़र्च उठा सकता है या नहीं। सवाल यह है कि क्या भारत अपनी खेती की धीमी, ख़ामोश टूटन को झेल सकता है।
खेतों में अनसुने, व्यवस्था के भरोसे
भारतीय किसान इसलिए नहीं टूट रहे कि वे बदलना नहीं चाहते। वे इसलिए टूट रहे हैं क्योंकि राज्य ने उन्हें साधन नहीं दिए। देश के बड़े हिस्सों में किसान आज भी उन बुनियादी चीज़ों के बिना काम कर रहे हैं, जो किसी आधुनिक अर्थव्यवस्था में ज़रूरी होनी चाहिए—तय दाम, भरोसेमंद सिंचाई, भंडारण, इलाज, समय पर कर्ज़ और निष्पक्ष बाज़ार। ये सुविधाएँ नहीं, जीवन की न्यूनतम शर्तें हैं।
सिंचाई असमान और अनिश्चित है। स्टोरेज की कमी फ़सलों को औने-पौने बेचने पर मजबूर करती है। मंडियाँ कमज़ोर हैं, खरीद चुनिंदा है, MSP काग़ज़ों में सिमटा है। कर्ज़ देर से या ऊँचे ब्याज पर मिलता है। बीमा तब फेल हो जाता है, जब उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। इलाज दूर और महँगा है।
सबसे तकलीफ़देह बात सुविधाओं की कमी नहीं, सुनवाई की कमी है। किसान चले, बैठे, बोले, समझाए। माँगें साफ़ थीं—कानूनी MSP, कर्ज़ राहत, लागत पर नियंत्रण, पेंशन, इलाज और सम्मान। जवाब वही रहा—बैठकें बिना समयसीमा के, समितियाँ बिना नतीजे के, वादे बिना अमल के।
राज्य ने सुनने के बजाय छवि संभालना चुना। सुधार के बजाय आंदोलनों को संभाला। नीतियाँ पहुँचाने से पहले बॉर्डर सील कर दिए गए। इंटरनेट ज़्यादा तेज़ी से बंद हुआ, खरीद व्यवस्था उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ी। जब किसान बोले, सत्ता ने कान बंद कर लिए।
यह न सुनना तटस्थ नहीं है—इसके गहरे नतीजे हैं। यह किसानों को और ज़्यादा कर्ज़ में धकेलता है, पलायन को मजबूर करता है, परिवारों को तोड़ता है और निराशा को जन्म देता है। यह संदेश देता है कि जो लोग देश के लिए खाना उगाते हैं, उनकी आवाज़ मायने नहीं रखती, उनका नुकसान स्वीकार्य है, और उनकी ज़िंदगी मोल-तोल की चीज़ है। जो लोकतंत्र अपने किसानों की बात सुनना बंद कर देता है, वह सिर्फ़ अक्षम नहीं रहता—वह अपनी नैतिक परीक्षा में असफल हो जाता है।
किसान दान नहीं माँग रहे। वे न्याय माँग रहे हैं। वे वही सुविधाएँ और सम्मान माँग रहे हैं, जिनका वादा उनसे किया गया था। जब तक सरकार सचमुच नहीं सुनेगी—केवल औपचारिक तौर पर नहीं, बल्कि गंभीरता से—यह संकट खत्म नहीं होगा। यह और कठोर होता जाएगा। और उस चुप्पी की कीमत सिर्फ़ किसान नहीं, बल्कि पूरा देश चुकाएगा, जो उन्हीं पर निर्भर है।
ज़िम्मेदारी से पीछे हटती सत्ता, टूटते किसानों की कहानी
ज़िम्मेदारी को लेकर किसी तरह का भ्रम नहीं होना चाहिए। भारतीय किसानों का लगातार बढ़ता दर्द न तो अज्ञान का नतीजा है, न अनिश्चितता का, और न ही किसी मजबूर आर्थिक हालात का। यह जानबूझकर अपनाई गई सरकारी उदासीनता का परिणाम है। जब राज्य को संकट की गहराई पूरी तरह पता हो और फिर भी वह कुछ न करे, तो यह निष्क्रियता नहीं रहती—यह सीधा दोष बन जाती है।
सालों से अलग-अलग सरकारों को—कृषि मंत्रालय से लेकर वित्त मंत्रालय और सत्ता के सबसे ऊँचे दफ़्तरों तक—बार-बार चेताया गया। अर्ज़ियाँ दी गईं, आंदोलन हुए, और ऐसे आँकड़े सामने रखे गए जो बिल्कुल साफ़ थे। किसान बिना आमदनी की सुरक्षा के नहीं बच सकते। बाज़ार उन्हें नहीं बचाता। घोषणाएँ पेट नहीं भरतीं। समितियाँ जान नहीं बचातीं। फिर भी जवाब हमेशा एक-सा रहा—फ़ैसले टाल दो, माँगों को हल्का कर दो, और आंदोलन करने वालों को थका कर चुप करा दो।
जब किसान लागत से कम दाम पर फ़सल बेचने को मजबूर होते हैं, कर्ज़ में डूबते हैं और अपने बच्चों को खेती छोड़ते हुए देखते हैं, तब सरकार “व्यावहारिकता” पर बहस करती रहती है। जब आत्महत्याएँ बढ़ती हैं और गाँव धीरे-धीरे खाली होते जाते हैं, तब राज्य “वित्तीय अनुशासन” का हवाला देता है। जो लोग देश का पेट भरते हैं, जब वे सम्मान और सुरक्षा माँगते हैं, तो उनके सामने बैरिकेड खड़े कर दिए जाते हैं, लाठियाँ दिखाई जाती हैं और अफ़सरशाही के गोल-मोल जवाब थमा दिए जाते हैं। यह किसी नीति की छोटी चूक नहीं है—यह एक गहरी नैतिक विफलता है।
जो सरकार हर दूसरे क्षेत्र को किसी न किसी तरह की सुरक्षा देती है, लेकिन अन्न उगाने वालों के लिए न्यूनतम दाम की गारंटी से इनकार करती है, वह तटस्थ होने का दावा नहीं कर सकती। उसने अपना पक्ष चुन लिया है—और वह किसानों का पक्ष नहीं है। निर्णायक कदम न उठाकर राज्य ने किसानों के दुख को “सहायक नुकसान” मान लिया है और उन्हें नागरिक नहीं, बल्कि “प्रबंधन की समस्या” बना दिया है।
इस गैर-ज़िम्मेदारी की कीमत गाँव-गाँव लिखी जा चुकी है—टूटे शरीर, बिखरे परिवार, छोड़ी गई ज़मीनें और खामोशी में बुझती ज़िंदगियाँ। ये कोई अमूर्त या दूर की बातें नहीं हैं। ये राजनीतिक फ़ैसलों से पैदा हुए इंसानी नतीजे हैं।
इतिहास यह नहीं पूछेगा कि सरकार के लिए समय सुविधाजनक था या नहीं। इतिहास यह पूछेगा कि जब ज़रूरत थी, तब उसने क्या किया।
और अगर राज्य टालमटोल छोड़कर जवाबदेही नहीं अपनाता, तो फैसला बिल्कुल साफ़ होगा—किसानों ने इसलिए कष्ट नहीं झेला कि मदद नामुमकिन थी, बल्कि इसलिए कि सरकार ने मदद न करने का चुनाव किया।
