लुप्त हुई आबादी: कैसे विभाजन ने पाकिस्तान से हिंदुओं को मिटा दिया

लुप्त हुई आबादी: कैसे विभाजन ने पाकिस्तान से हिंदुओं को मिटा दिया

1947 का भारत विभाजन केवल एक राजनीतिक घटना नहीं था — यह सभ्यता का गहरा घाव था। इसने परिवारों को तोड़ दिया, समाजों को नष्ट कर दिया, और दक्षिण एशिया के नक्शे को खून से रंग दिया। परंतु इस दुखद इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जिसके बारे में बहुत कम बात की जाती है — पाकिस्तान से हिंदुओं और सिखों का लगभग पूरी तरह मिट जाना।

जिन लोगों ने इसे झेला, उनके लिए विभाजन कोई बदलाव नहीं, बल्कि अस्तित्व का अंत था। पश्चिम पाकिस्तान से गैर-मुस्लिमों का पलायन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह एक योजनाबद्ध, व्यापक और पूरी तरह से सुनियोजित जातीय और सांस्कृतिक सफ़ाई थी,
जिसने एक ऐसी भूमि को, जो कभी हिंदू और सिख जीवन से भरी थी, लगभग खाली कर दिया।

महान पलायन: इतिहास में पहली बार ऐसा जनसांख्यिक पतन

विभाजन से पहले, 1941 की जनगणना के अनुसार, पाकिस्तान (तब का पश्चिमी भारत) की कुल आबादी लगभग 2.9 करोड़ थी,
जिसमें से लगभग 14% यानी 40.6 लाख लोग हिंदू थे। 1951 तक यह संख्या घटकर केवल 1.3% यानी लगभग 4.4 लाख रह गई।
सिर्फ दस वर्षों में एक पूरी सभ्यता अपने ही घर से गायब हो गई।

यह बदलाव बेहद बड़ा था:

  • सिंध में 1941 में हिंदू आबादी 26% थी, 1951 में यह घटकर केवल 8% रह गई।

  • पंजाब में तो उनका नाम तक मिट गया। लाहौर से लायलपुर तक मंदिर, स्कूल और परिवार या तो खत्म हो गए या पलायन कर गए।

  • पूरे पाकिस्तान में लाखों हिंदू और सिख अपने घर, ज़मीन और इतिहास को पीछे छोड़कर निकल गए।

भारत की 1951 की जनगणना बताती है कि 7.3 मिलियन (73 लाख) हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत आए, जबकि लगभग 7.2 मिलियन (72 लाख) मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए। संख्या भले ही लगभग बराबर थी, लेकिन परिणाम बेहद असमान — भारत में मुसलमान आज भी एक बड़ी और सुरक्षित अल्पसंख्यक आबादी हैं, जबकि पाकिस्तान में हिंदू लगभग समाप्त हो गए।

47.5 लाख का दावा: आँकड़ों में छिपी चुप्पी

कुछ संगठनों के अनुसार, लगभग 47.5 लाख हिंदू और 22.5 लाख सिख, यानी कुल 70 लाख गैर-मुस्लिम या तो मारे गए, जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया, या उन्हें अपने घरों से निकाल दिया गया। भले ही इन आँकड़ों में मौत और पलायन दोनों शामिल हैं, पर सच्चाई यह है कि लाखों हिंदू और सिखों को हिंसा में कुचल दिया गया और असंख्य परिवार हमेशा के लिए मिट गए।

इतिहासकार यास्मीन खान, इयान टैलबॉट, और इश्तियाक अहमद के अनुसार विभाजन के दौरान कुल मौतों का आँकड़ा 2 लाख से 20 लाख के बीच था, जिसमें लगभग 10 लाख सबसे स्वीकार्य माना जाता है। सिर्फ पंजाब में ही 5 से 8 लाख लोग मारे गए। भारत आने वाली कई रेलगाड़ियाँ लाशों से भरी पहुँचीं। शरणार्थी ‘मौत के काफिला’, सामूहिक बलात्कारों और निर्ममता की कहानियाँ सुनाते रहे।

पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों के लिए यह हिंसा कोई आकस्मिक दंगा नहीं थी — यह एक सुनियोजित सफाया था। शेखूपुरा में दो दिनों में 10,000 से 20,000 लोग मारे गए। लायलपुर और गुजरांवाला में सेना चुप रही, जबकि भीड़ गैर-मुसलमानों को मारती रही।
महिलाओं का अपहरण हुआ, बच्चों की हत्या की गई, और मंदिरों को जला दिया गया।

दुनिया ने रवांडा, बोस्निया और यूरोप के नरसंहारों को दर्ज किया, पर पाकिस्तान से लाखों हिंदू-सिखों के निष्कासन को कोई याद नहीं करता। यह चुप्पी, इनकार से भी ज़्यादा दर्दनाक है।

खूनी आईना: जब सरहद के दोनों ओर खून बहा

लेकिन यह त्रासदी केवल एक ओर की नहीं थी। पूर्वी पंजाब, दिल्ली और जम्मू में भी मुसलमानों पर वैसी ही हिंसा हुई। सिर्फ दिल्ली में 20,000 से 25,000 मुसलमान मारे गए। शहर में उनकी आबादी कुछ ही महीनों में 33% से घटकर 6% रह गई। जम्मू में 30,000 से अधिक मुसलमानों की हत्या हुई और लगभग 1 लाख लोग भाग गए।

गाँव जलाए गए, शरणार्थी ट्रेनों पर हमले हुए और बदले की आग ने पूरे उत्तर भारत को झुलसा दिया। एक तरफ़ मौत, दूसरी तरफ़ पलायन — नतीजा हर जगह एक ही था: इंसानियत हार गई।

विभाजन: राजनीति की असफलता और मानवता की हार

विभाजन कोई एकतरफा नरसंहार नहीं था — यह दोनों ओर की जातीय सफाई थी। यह त्रासदी थी — राजनीतिक विफलता, औपनिवेशिक स्वार्थ, और राज्य की कमजोरी की।

ब्रिटिश सरकार ने सिर्फ 40 दिनों में रैडक्लिफ़ रेखा खींच दी, और दो नवजात देशों को उस विभीषिका के हवाले कर दिया, जिसके लिए न तो कोई प्रशासन तैयार था, न ही समाज।

एक खोई हुई सभ्यता की प्रतिध्वनि

विभाजन ने केवल सीमाएँ नहीं बदलीं — इसने एक पूरी सभ्यता का चेहरा मिटा दिया। जहाँ कभी सिंध, लाहौर और पेशावर के बाज़ारों में
आरती, कीर्तन और गुरुबाणी की ध्वनि गूँजती थी, वहाँ अब सिर्फ़ खामोशी और यादें हैं।

 

हिंदू और सिख उस ज़मीन से गायब हो गए, जहाँ उनके पूर्वज हज़ारों सालों से रहते आए थे। यह केवल इतिहास नहीं — एक मिट चुकी दुनिया की कहानी है। एक ऐसी दुनिया, जो अब केवल आँकड़ों और बचे हुए चंद यादों में बसती है।

बचे हुए लोग: अपने ही वतन में पराए

1951 तक, पाकिस्तान में लगभग 4.4 लाख हिंदू बचे थे — ज्यादातर सिंध में, जबकि कुछ छोटे समुदाय बलूचिस्तान और दक्षिणी पंजाब में रहते थे। आज उनकी आबादी करीब 52 लाख (2.1%) है, मुख्य रूप से सिंध के थरपारकर और उमरकोट जिलों में केंद्रित, लेकिन उनकी हालत जीवित रहने की नहीं, बल्कि जीवन झेलने की कहानी है।

कानूनी अदृश्यता

  • पाकिस्तान में हिंदू विवाहों को कानूनी मान्यता 2017 तक नहीं मिली थी। अब भी यह कानून कुछ ही प्रांतों में लागू है।

आर्थिक बहिष्कार

  • लगभग 85% ग्रामीण सिंधी हिंदू गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताते हैं।

  • उनमें से बड़ी संख्या आज भी ईंट भट्ठों और खेतों में बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर है —जबकि यह प्रथा कई दशक पहले कानूनन समाप्त की जा चुकी है।

शिक्षा में पिछड़ापन

  • अनुसूचित जाति हिंदुओं में साक्षरता दर मात्र 19% है, जो पाकिस्तान के औसत 46% से बहुत कम है।

डर और पलायन

  • हर साल 2,000 से 5,000 हिंदू पाकिस्तान छोड़कर भारत की ओर पलायन करते हैं। ये लोग सुरक्षा और सम्मान की तलाश में सीमा पार करते हैं।

जबरन धर्म परिवर्तन और संस्थागत भय

ह्यूमन राइट्स वॉच, माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप इंटरनेशनल, और अमेरिकी विदेश विभाग की रिपोर्टें पाकिस्तान में हिंदुओं की स्थिति की भयावह तस्वीर पेश करती हैं।

हर साल 800 से 1,000 हिंदू लड़कियाँ, जिनमें अधिकतर नाबालिग होती हैं, अगवा की जाती हैं, जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है और धमकी या दबाव में मुस्लिम पुरुषों से शादी करा दी जाती है।

  • रिंकू कुमारी (2012) और मेहक कुमारी (2020) के मामले इस अन्याय के प्रतीक बन गए। दोनों को अगवा किया गया, जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया और अदालतों ने उन्हें अपने घर लौटने की अनुमति नहीं दी।

  • 1992 में भारत में बाबरी मस्जिद ढहने के बाद पाकिस्तान में 120 से अधिक मंदिरों को तोड़ दिया गया या जला दिया गया।

  • 2010 में कराची के मेमन गोठ इलाके में हिंदू परिवारों को सिर्फ़ इसलिए धमकाया गया क्योंकि उन्होंने मस्जिद के पास से पानी लिया था। डर के कारण 60 परिवारों को वहाँ से भागना पड़ा।

ये घटनाएँ अलग-अलग नहीं, बल्कि एक लगातार चलती व्यवस्था का हिस्सा हैं — जहाँ पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून (Blasphemy laws) अक्सर अल्पसंख्यकों को डराने और फँसाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

बिना देश के शरणार्थी: भूले-बिसरे निर्वासित

जो लोग भारत भागकर आए, उनके दुख की कहानी अलग है। लगभग 2 लाख हिंदू और सिख शरणार्थी भारत में आज भी बिना नागरिकता या संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी दर्जे (UNHCR status) के रह रहे हैं।

राजस्थान, गुजरात और दिल्ली के कैंपों में वे सीमा के इस पार भी बेघर और बेआवाज़ हैं। 2011 से 2017 के बीच, भारत सरकार ने सिर्फ 1,000 पाकिस्तानी हिंदुओं को ही नागरिकता दी।

कई शरणार्थी कहते हैं —

“हमारा देश नर्क से भी बदतर था,
पर यहाँ भी हम अधूरे नागरिक हैं।”

वे भारत आए सुरक्षा के लिए, पर यहाँ भी उपेक्षा और अनिश्चितता में जी रहे हैं।

आँकड़ों से परे: एक मिटती सभ्यता की कहानी

पाकिस्तान के हिंदुओं की कहानी केवल आँकड़ों की नहीं — यह उस बहुलतावादी विरासत के मिटने की कहानी है जो कभी सिंधु घाटी की आत्मा थी।

लाहौर के मंदिर, सिंध के घाट, और रावलपिंडी के स्कूल अब इतिहास बन गए हैं। जहाँ कभी संस्कृत की गूँज होती थी, वहाँ अब सन्नाटा है। यह पलायन आकस्मिक नहीं था — यह एक पहचान को मिटाने की प्रक्रिया थी। वह सभ्यता, जो हज़ारों साल से सिंधु के किनारे बसती थी, एक ही पीढ़ी में उजड़ गई।

आज पाकिस्तान के हिंदू उस खोई हुई दुनिया की आख़िरी झलक हैं — जो शत्रुता और उपेक्षा के बीच किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाए हुए हैं।


तालिका: पाकिस्तान में हिंदू जनसंख्या और उत्पीड़न का सारांश (1941–2024)

श्रेणी / शीर्षक मुख्य आँकड़े / निष्कर्ष प्रमुख स्रोत
1. हिंदू जनसंख्या में गिरावट (1941–1951) 1941 में 40.6 लाख (14%) से घटकर 1951 में केवल 4.4 लाख (1.3%) रह गई — यानी लगभग 88% की गिरावट। पंजाब और सिंध से हिंदू-सिखों का लगभग पूरा सफाया हुआ। जनगणना (1941, 1951); इश्तियाक अहमद; टैलबॉट एवं सिंह
2. शरणार्थी और पलायन आँकड़े (1947–1951) लगभग 73 लाख हिंदू-सिख पाकिस्तान से भारत आए; 72 लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए। कुल विस्थापित आबादी 1.5 करोड़ से अधिक — आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा जनसंख्या परिवर्तन। भारत-पाकिस्तान शरणार्थी अभिलेख (1951); कैम्ब्रिज हिस्ट्री; सरकारी दस्तावेज
3. हिंसा की प्रमुख घटनाएँ (1947–1948) पश्चिमी पंजाब में नरसंहार: शेखूपुरा (10,000–20,000 मृत), लायलपुर, कामोके ट्रेन हत्याकांड (400–1,000 मृत), कराची दंगे (1,100 मृत)। हज़ारों अपहरण और जबरन धर्मांतरण दर्ज। ब्रिटिश नेशनल आर्काइव्स; The Statesman (1947); इश्तियाक अहमद
4. विभाजन के बाद से अब तक हिंदू जनसंख्या (1951–2024) 1951: 0.44 मिलियन (1.3%) → 2017: 4.44 मिलियन (2.1%)। वर्तमान अनुमान (2023): लगभग 52 लाख हिंदू, जिनमें से 96% सिंध में रहते हैं। आबादी बढ़ी, पर प्रतिशत लगभग स्थिर। पाकिस्तान सांख्यिकी ब्यूरो; माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप (2023)
5. जारी उत्पीड़न (1990–2024) हर साल 700–1,000 हिंदू लड़कियाँ अगवा और जबरन धर्मांतरित की जाती हैं (मुख्यतः सिंध में)। 1992 में 120 मंदिर, 2013 में 30 मंदिर नष्ट हुए। ग्रामीण हिंदुओं में 84.7% गरीबी रेखा से नीचे; अनुसूचित जातियों की साक्षरता 19–34%। ह्यूमन राइट्स वॉच; USCIRF (2023); Dawn; HRCP; दलित सॉलिडैरिटी नेटवर्क
6. पाकिस्तान के हिंदुओं का लुप्त होना (सारांश) कुल विस्थापित: 47.5 लाख हिंदू, मृतक: 2–5 लाख। विभाजन के बाद बचे: 4.4 लाख। वर्तमान में भी जबरन धर्मांतरण, बंधुआ मजदूरी और मंदिरों का अपमान जारी। ऐतिहासिक अभिलेख; भारत की जनगणना; HRW; माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप रिपोर्ट्स

अंतिम मूल्यांकन (Final Appraisal)

1947 से 1951 के बीच, पाकिस्तान के हिंदुओं ने दक्षिण एशिया के इतिहास में दर्ज सबसे बड़े विनाशों में से एक झेला। 1941 में लगभग 40 लाख (14%) हिंदू थे  जो 1951 तक घटकर सिर्फ़ 4.4 लाख (1.3%) रह गए — एक ऐसी जनसंख्या गिरावट जिसे सिर्फ़ हिंसा, पलायन और डर से ही समझा जा सकता है।

पंजाब और सिंध से पूरी-की-पूरी बस्तियाँ उजाड़ दी गईं।मंदिर लूटे गए, घर कब्ज़ा कर लिए गए, और परिवारों को भागने पर मजबूर किया गया।

अभिलेखों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान बताते हैं कि भारत आने वाली ट्रेनों में मरे हुए लोगों के साथ जीवित लोग बैठे थे — पुरुषों की हत्या की गई, महिलाएँ अगवा हुईं, बच्चे गायब थे। शेखूपुरा और लायलपुर जैसे इलाकों में कुछ ही दिनों में हज़ारों लोगों का नरसंहार हुआ।

यह सब कोई आकस्मिक दंगे नहीं थे, बल्कि संगठित तरीके से की गई जातीय सफ़ाई थी, जिसने सिंधु से रावी तक फैली सदियों पुरानी हिंदू बस्तियों को पूरी तरह खाली कर दिया।

जो बचे, वे एक रात में शरणार्थी बन गए। 1951 तक भारत ने पाकिस्तान से आए 70 लाख से अधिक हिंदू और सिखों को शरण दी —
इतना विशाल पलायन कि उसने पूरे उपमहाद्वीप की जनसंख्या का स्वरूप बदल दिया।

लेकिन त्रासदी यहीं खत्म नहीं हुई। जो सिर्फ़ आधा मिलियन हिंदू पीछे रह गए, उन्होंने आने वाले दशकों तक भेदभाव और भय में जीवन बिताया। आज पाकिस्तान में उनकी आबादी लगभग 2% है — ज्यादातर सिंध में, जहाँ अब भी जबरन धर्मांतरण, मंदिर तोड़फोड़, बंधुआ मजदूरी और भेदभाव जारी है।

78 साल बाद भी, यह पीड़ा अब खामोश रूपों में जारी है। हिंदू बेटियाँ अगवा की जाती हैं, धर्म परिवर्तन कराया जाता है, परिवार डर के कारण आवाज़ नहीं उठा पाते। मंदिरों का अपमान होता है, और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के कानून कागज़ों तक ही सीमित हैं।

फिर भी, पाकिस्तान के हिंदू अपनी आस्था को जीवित रखे हुए हैं — थरपारकर के रेगिस्तान, कराची के गुप्त मंदिरों और शाम की धीमी आरती में उनका विश्वास अब भी जलता है — मिटाए जाने से इंकार करता हुआ।

जनगणनाएँ, शरणार्थी अभिलेख, सरकारी रिपोर्टें और मानवाधिकार दस्तावेज़ — सभी इस सच्चाई को स्पष्ट करते हैं। विभाजन ने सिर्फ भारत को नहीं बाँटा — उसने एक पूरे समुदाय का अस्तित्व मिटा दिया।

संख्याओं पर बहस गौण है क्योंकि सच्चाई यह है कि यह एक सभ्यता को समाप्त करने की सुनियोजित प्रक्रिया थी, जो कभी सिंधु नदी के किनारे फली-फूली थी।


निष्कर्ष: उन हिंदुओं के नाम — जो बचे, और जो नहीं बच सके

यह उन हिंदुओं के लिए है जो सीमा पार नहीं कर पाए। उन लाखों आत्माओं के लिए जो 1947 में खो गईं — बिना नाम के, बिना चेहरों के, पर हमेशा यादों में जीवित।

उनके लिए जिनके मंदिर मिट्टी में मिल गए, मूर्तियाँ तोड़ दी गईं, बेटियाँ उठा ली गईं और बेटे कभी लौटकर नहीं आए।

यह कहानी इतिहास ने नहीं लिखी,
पर समय ने याद रखी

आप सिंधु सभ्यता की धड़कन थे — उस आस्था के रक्षक, जिसने कभी सरस्वती और सिंधु के तटों को आलोकित किया था। आपने पंजाब की धरती जोती, सिंध की बारिशों में गीत गाए और कराची, शिकरपुर, ठट्टा में उगते सूर्य की पूजा की।

आपने ऐसे मंदिर बनाए जहाँ हर धर्म के लिए द्वार खुले थे और ऐसे बाज़ार जहाँ भाषाएँ नदियों की तरह मिलती थीं। फिर एक दिन, रातों-रात, आपको बताया गया — कि आप उस भूमि के नहीं हैं, जहाँ आपके पूर्वजों ने ऋग्वेद का पाठ किया था, जब न इस्लाम था, न इंग्लैंड का नाम।

आप पराजित नहीं हुए — आपको उखाड़ फेंका गया। आप मिटे नहीं — आपको निर्वासित किया गया। भारत आने वाली उन ट्रेनों में, जो लाशों के साथ जीवितों को भी ढो रही थीं, नंगे पाँव जलते मैदानों को पार करते शरणार्थियों की कतारों में, आपने वह चीज़ बचाई जिसे कोई छीन नहीं सका — आपके देवता, आपकी स्मृति, आपका धर्म।

दुनिया ने आपकी गुमशुदगी पर ध्यान नहीं दिया। इतिहासकारों ने पन्ना पलट दिया, राजनीतिज्ञों ने इसे “आदान-प्रदान” कहा और पाठ्यपुस्तकों ने “प्रवासन” का नाम दे दिया। पर आप जानते थे — आप प्रवासी नहीं, बल्कि सभ्यता के बचे हुए साक्षी थे।

जो वहीं रह गए — सिंध के धूल भरे गाँवों और बलूचिस्तान के वीरान खेतों में — उन्होंने भी हार नहीं मानी। उन्होंने जबरन धर्मांतरण, टूटे मंदिरों, और भय के बीच भी दीप जलाए रखे। उन्होंने प्रार्थनाएँ कीं जो राजाओं से भी अधिक टिकाऊ रहीं।

पाकिस्तान के हिंदू भूले नहीं गए हैं।
वे इस बात के जीवित प्रमाण हैं कि आस्था साम्राज्यों से भी अधिक टिकती है।

यह कहानी पराजय की नहीं, प्रतिरोध की है — एक ऐसी जिद की, जो कहती है: “हम वही रहेंगे जो हम हैं।” हर दीपक जो थरपारकर में जलता है, हर मंदिर जो उमरकोट में फिर से बनता है, हर लड़की जो अब भी सिंदूर लगाती है या गीता पढ़ती है — वह एक प्रतिरोध और पुनर्जन्म का प्रतीक है।

इतिहास को अब खामोश नहीं रहना चाहिए। उसे यह मानना होगा कि यह पलायन संयोग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित अपराध था
आस्था, संस्कृति, और भारत की सभ्य परंपरा के खिलाफ़।

फिर भी, हर शरणार्थी कैंप में जहाँ से एक नया घर बना, हर राख से जो जीवन दोबारा शुरू हुआ, आपने दुनिया को दिखाया कि धर्म केवल उपासना नहीं, धैर्य भी है।

आप — पाकिस्तान के भूले हुए हिंदू — भारतीय इतिहास के अदृश्य स्तंभ हैं, जो स्मृति को थामे खड़े हैं। सीमाओं ने राष्ट्र बाँटे, पर आपकी आत्मा नहीं बाँट सकीं। यह आपकी कहानी है — और यह कही जाएगी।

“हर मंदिर जो टूटा, उसके बदले हजार यादें बचीं।
हर निर्वासन के बदले हजार प्रार्थनाएँ जीवित रहीं।
हर हिंदू जो मिटा, भारत उसे अब भी याद करता है।”

धुआँ बन गईं यादें, मगर दीप जलते रहे,
हज़ार आँसुओं में भी विश्वास पलते रहे।
मिट्टी छिनी, मंदिर टूटे, पर संस्कार न मिटे,
वो हिंदू थे — जो जलकर भी अडिग चलते रहे।

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