वीर सावरकर, जिन्हें विनायक दामोदर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी, विचारक, साहित्यकार और समाज सुधारक थे। उनका जीवन और कार्य आज भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम की गाथा का एक प्रेरक अध्याय है।
ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांति का बिगुल:
सावरकर की युवावस्था ब्रिटिश राज के अत्याचारों को सहते हुए बीती। बाल्यकाल से ही उनमें राष्ट्रभक्ति की भावना प्रबल थी। 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने भाई गणेश के साथ मिलकर “मित्र मेल” नामक एक गुप्त संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य देशभक्ति की भावना जगाना और समाज में क्रांतिकारी चेतना का संचार करना था।
लंदन में शिक्षा प्राप्त करते समय भी उनका क्रांतिकारी जोश कम नहीं हुआ। उन्होंने वहां ‘भारतीय मजलिस’ की स्थापना की। यह संगठन भारतीय छात्रों को क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए प्रेरित करने और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार करता था।
सावरकर ने अपने लेखों और पुस्तकों के माध्यम से भी क्रांति का बिगुल बजाया। उनकी पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ ने 1857 के विद्रोह को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्थापित किया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना को भड़काया। उनकी एक अन्य रचना ‘मरो मुझे मारो’ युवाओं में देशभक्ति का ज्वाला जगाने के लिए प्रसिद्ध हुई।
हिंदुत्व की अवधारणा और राष्ट्रीय चेतना का निर्माण:
सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा को जन्म दिया, जिसने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नया आयाम दिया। उन्होंने इस अवधारणा के माध्यम से भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया, जहां सभी धर्मों और समुदायों का सम्मान होता है, लेकिन राष्ट्रीय पहचान हिंदू ही मानी जाए।
‘हिंदुत्व’ की विचारधारा ने एकजुट हिंदू राष्ट्र के निर्माण का आह्वान किया, जिसने उस समय ब्रिटिश राज के खिलाफ राष्ट्रीय चेतना को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
साहित्यिक कृतियों से देशभक्ति का संचार:
सावरकर केवल एक क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्य रचना की। उनकी रचनाओं में क्रांति, बलिदान और राष्ट्रभक्ति का जोश कूट-कूट कर भरा हुआ है। ‘कमला’, ‘गोमांतक’, ‘जयहिंद’ और ‘महाकाव्य रणदुंदुभी’ उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं।
इन कृतियों ने न केवल लोगों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया बल्कि भारतीय संस्कृति और गौरव की भावना को भी जगाया।
समाज सुधारक के रूप में योगदान:
सावरकर ने देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ समाज सुधार को भी अपना महत्वपूर्ण लक्ष्य माना। उन्होंने जातिवाद और छुआछूत जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। उनका मानना था कि एक स्वतंत्र भारत तभी सार्थक होगा जब उसका समाज समानता और भाईचारे पर आधारित हो। उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण और शिक्षा को भी बढ़ावा दिया।
वीर सावरकर: अंडमान सेल्युलर जेल में जीवन
वीर सावरकर, जिन्हें 1909 में नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था, 27 जून 1911 को अंडमान के लिए रवाना हुए। 50 साल की सजा के साथ, सावरकर को भयानक सेल्युलर जेल में भेजा गया, जहाँ उन्होंने 10 साल बिताए।
जेल में जीवन:
- सेल्युलर जेल में जीवन अत्यंत कठिन था। कैदियों को अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता था, उन्हें भारी श्रम के लिए मजबूर किया जाता था, और उन्हें क्रूर यातनाएं दी जाती थीं।
- सावरकर को भी इन सभी कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्हें एक छोटी सी कोठरी में रखा गया था, जहाँ उन्हें केवल 15 मिनट के लिए धूप में जाने की अनुमति थी। उन्हें भारी पत्थर तोड़ने और जेल के अंदर सफाई करने का काम दिया गया था।
- जेल में रहते हुए भी, सावरकर ने अपना साहस और दृढ़ संकल्प नहीं खोया। उन्होंने अपनी ऊर्जा को सकारात्मक कार्यों में लगाया। उन्होंने जेल में रहते हुए कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें “कमला”, “गोमांतक”, “1857 का स्वातंत्र्य समर” और “1857 का इतिहास” शामिल हैं।
- उन्होंने जेल में कैदियों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था करने के लिए भी काम किया। उन्होंने एक पुस्तकालय और एक अस्पताल की स्थापना की, जिससे कैदियों के जीवन स्तर में सुधार हुआ।
सावरकर का भारत की आजादी में योगदान अतुलनीय है।
- उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी।
- उन्होंने ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा विकसित करके भारतीयों में राष्ट्रीय भावना जागृत की।
- उन्होंने अपने साहित्यिक कार्यों के माध्यम से देशभक्ति और बलिदान की भावना को प्रेरित किया।
- उन्होंने सामाजिक सुधारों के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।