लचित बोरफुकन: वह सेनापति जिसने एक ही रात में दीवार खड़ी की और एक साम्राज्य को हरा दिया

ब्रहमपुत्र के किनारे वह रात बिल्कुल शांत थी। नदी किनारे लगी हुई मशालें झिलमिलाती थीं और उनकी रोशनी पानी में हिलते-डुलते प्रतिबिंब बना रही थी। हज़ारों सैनिक बिना आवाज़ किए दौड़-भाग में लगे थे—कहीं खुदाई चल रही थी, कहीं मिट्टी की टोकरियाँ ढोई जा रही थीं और धीरे-धीरे एक मिट्टी का किला आकार ले रहा था।

इन सबके ऊपर खड़े थे एक दृढ़ निश्चयी योद्धा—लाछित बरफुकन, अहोम सेना के सेनापति। मशालों की रोशनी में उनकी तलवार चमक रही थी।

सुबह होते-होते यह किला तैयार हो जाएगा। उसी सुबह लाछित के सैनिकों को यह एहसास होगा कि उनके सेनापति का अनुशासन कितना कठोर है और देश के लिए उनकी प्रतिबद्धता कितनी गहरी क्योंकि सूरज उगने से पहले ही लाछित अपने ही मामा (मातुल) को काम में लापरवाही के कारण मृत्युदंड दे चुके थे।

“Dexot koi mumai dangor nohoi!” — “मेरे लिए देश, मेरे मामा से भी बड़ा है।”

यह वाक्य आगे चलकर असम के इतिहास में देशभक्ति की अमर पुकार बन गया।


एक घिरा हुआ साम्राज्य

उस रात की जल्दी को समझने के लिए हमें 17वीं शताब्दी में लौटना होगा, जब ब्रह्मपुत्र घाटी में बसे अहोम राज्य को मुगल विस्तार सबसे बड़ी चुनौती दे रहा था।

1228 में उनके संस्थापक सुकाफ़ा के आने के बाद से लगभग चार शताब्दियों तक अहोम शासन चलता रहा। वे विजेता कम, संस्थापक और निर्माता अधिक थे। यहाँ हर पुरुष ज़रूरत पड़ने पर सैनिक और सामान्य समय में किसान था।

लेकिन 1662 में मुगल साम्राज्य असम की सीमाओं तक पहुँच चुका था। औरंगज़ेब के आदेश पर मीर जुमला की सेना ने गुवाहाटी पर कब्ज़ा कर लिया और अहोम राज्य को अपमानजनक संधि (1663 की गिलाजरिघाट संधि) करनी पड़ी।

यह अपमान ही बाद में असम के पुनरुत्थान का कारण बना। राजा चक्रध्वज सिंह ने खोई हुई भूमि और सम्मान वापस लाने का संकल्प लिया और इस मिशन का नेतृत्व किया—शांत स्वभाव लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति वाले अधिकारी लाछित, जो कभी निम्न जन्म वाले परंतु तेजस्वी मंत्री मोमाई तामुली बोरबरुआ के पुत्र थे।


एक अनुशासित योद्धा का उदय

1622 में जन्मे लाचित ने अपने पिता से कड़ी मेहनत और अनुशासन सीखा। उनके पिता ने एक माली के सहायक से शुरुआत करके अहोम दरबार में सबसे ऊँचा पद पाया था — इससे यह साबित हुआ कि अहोम समाज में जन्म नहीं, बल्कि योग्यता ही मायने रखती थी।

लाचित ने शासन, युद्ध और शास्त्रों की शिक्षा ली। वे दिखावे के नहीं, बल्कि सोच-समझकर निर्णय लेने वाले सेनापति थे। 1667 में उन्होंने गुवाहाटी को मुग़लों से वापस जीतकर अपनी प्रतिभा साबित की।

राजा चक्रध्वज सिंहा ने उन्हें बोरफुकन यानी सेनापति और पश्चिमी असम का गवर्नर नियुक्त किया और उन्हें “हेंगडांग” नाम की तलवार भेंट की — जो वीरता और सम्मान का प्रतीक थी।

अब लाचित के सामने औरंगज़ेब की सबसे बड़ी चुनौती थी — उसका विशाल पूर्वी अभियान, जो असम की स्वतंत्रता को मिटा सकता था।


मुग़ल सेना की चढ़ाई

1669 में औरंगज़ेब ने अपनी हार का बदला लेने के लिए राजा राम सिंह प्रथम (अंबर के राजपूत राजा) को भेजा। उसके साथ 30,000 से 70,000 सैनिकों की विशाल सेना थी, जिनके पास तोपें और घोड़े थे।

राम सिंह ब्रहमपुत्र के किनारे-किनारे बढ़ रहा था, उसके साथ मुग़ल साम्राज्य का अहंकार भी था — उसे आदेश मिला था कि अहोमों को वैसे ही झुकाओ, जैसे बाकी राजाओं को झुकाया गया।

लेकिन लाचित जानता था — असम की धरती अलग है। यहाँ के जंगल, दलदल और नदियाँ ही असम के सच्चे साथी थे। ब्रहमपुत्र की धारा को वही समझ सकता था जो उसमें पला हो। लाचित ने अपने साथियों से कहा, “उन्हें आने दो, हम मैदान में नहीं — नदी में लड़ेंगे।

यहीं से शुरू हुआ भारत के इतिहास का एक शानदार युद्ध — सराईघाट का संग्राम।


वह दीवार जिसने एक राज्य को बचाया

मार्च 1671 की शुरुआत में ख़बर आई कि मुग़ल सेना गुवाहाटी की ओर बढ़ रही है। राम सिंह की घुड़सवार सेना उत्तर तट की ओर तेजी से आगे बढ़ रही थी। अगर वे पहुँच जाते, तो गुवाहाटी बचाना मुश्किल हो जाता।

लाचित ने तुरंत निर्णय लिया — “हमें एक मिट्टी की दीवार बनानी होगी, जो दुश्मन की चाल को रोक सके।”और वह दीवार एक ही रात में बननी थी।

उन्होंने हज़ारों पाइक सैनिकों (जो मजदूर और सैनिक दोनों थे) को बुलाया और आदेश दिया — “अमिंगाँव के पास तुरंत रक्षा दीवार तैयार करो।” हर बीतता घंटा अब हार के बराबर था।

उस रात ब्रहमपुत्र का किनारा एक निर्माण स्थल बन गया। मशालों की रोशनी में सैनिक मिट्टी खोद रहे थे, टोकरी भर रहे थे और गीत गाकर काम की गति बनाए हुए थे। धरती पर हथौड़ों और फावड़ों की आवाज़ गूंज रही थी।

आधी रात को सूचना मिली — दीवार का एक हिस्सा अधूरा रह गया है। जिम्मेदार अधिकारी कोई और नहीं, लाचित का मामा था। उसने समझा था कि थोड़ा आराम कर लेना हानि नहीं करेगा।

लाचित का धैर्य टूट गया। वे घोड़े से उतरे, अपनी हेंगडांग तलवार निकाली और एक ही वार में अपने मामा को दंड दे दिया। “Dexot koi mumai dangor nohoi!” — “मेरे लिए मेरा मामा देश से बड़ा नहीं है!”

सैनिक स्तब्ध रह गए। फिर सबने दुगनी गति से काम शुरू कर दिया। सुबह तक दीवार पूरी हो चुकी थी — मिट्टी और रेत की एक मजबूत रेखा, जिसने मुग़ल सेना की बढ़त रोक दी।

यह वही दीवार थी जो बाद में लाचित गढ़ के नाम से जानी गई — वह दीवार जिसने असम को बचाया और वह रात जिसने लाचित बोरफुकन को अमर कर दिया।

नदी धधक उठी

अगली सुबह जब कोहरा छँटा, तो राम सिंह की सेना ने देखा कि उनका रास्ता पूरी तरह बंद है। घुड़सवार आगे नहीं बढ़ सकते थे, इसलिए राजपूत सेनापति ने अपना ध्यान नदी की ओर मोड़ा। उन्होंने अपनी जल-सेना—चालीस बड़ी तोपों से लैस नौकाएँ—अहोम नौसेना पर हमला करने भेज दीं।

लाछित तेज़ बुखार से पीड़ित थे, लेकिन उन्होंने कमान छोड़ने से इंकार कर दिया। उन्हें खाट सहित ही युद्ध-नौका पर ले जाया गया। उन्होंने कहा, “जब मेरी भूमि जल रही है, तो मैं कैसे आराम कर सकता हूँ?”

इसके बाद जो हुआ, वह अराजकता और वीरता—दोनों का संगम था। ब्रह्मपुत्र तोपों की गड़गड़ाहट और युद्ध-नादों से कांप उठा। मुगल नौकाएँ भारी और धीमी थीं, वे दूर से ही गोलाबारी कर रही थीं। अहोम नौकाएँ छोटी और तेज़ थीं—धुएँ के बीच मछलियों की तरह फुर्ती से इधर-उधर घूम रही थीं।

लाछित, बुखार से बचने के लिए ओढ़ी हुई शॉल में लिपटे, अपनी तैरती खाट पर से ही पूरी सेना को निर्देश दे रहे थे। उनके संकेत पर अहोम नौसेना ने अर्धचंद्राकार गठन बनाकर मुगल अग्रिम पंक्ति को चारों ओर से घेर लिया। कामाख्या पहाड़ी से तीरों की बारिश हो रही थी। किनारे से ढोल बज रहे थे।

फिर निर्णायक पल आया—एक तोप का गोला मुगल एडमिरल मुनव्वर ख़ान पर लगा और वह वहीं मारा गया। उनकी मौत से फैले भय को देखते ही लाछित ने अंतिम आक्रमण का आदेश दिया। अहोम नावों ने मुगल जहाज़ों को टक्कर मारी, उन पर चढ़ाई की और आग लगा दी।

सूर्यास्त तक मुगल जलसेना बिखर चुकी थी। हज़ारों सैनिक डूब गए या भाग गए। राम सिंह, अपनी विफल होती मुहिम को देखकर, रंगामाटी की ओर पीछे हट गया। दिल्ली, बंगाल और दक्कन को जीतने वाला साम्राज्य—यहाँ एक नदी और एक आदमी की इच्छाशक्ति से रुक गया।


परिणाम: जीत की कीमत

सराइघाट की लड़ाई सिर्फ सैन्य विजय नहीं थी—यह सभ्यतागत जीत थी। यही लड़ाई मुगल विस्तार को पूर्वोत्तर में हमेशा के लिए रोक देने वाली साबित हुई। ब्रह्मपुत्र घाटी आने वाले डेढ़ सौ वर्षों तक, 1826 में अहोम साम्राज्य के अंत तक, आज़ाद रही।

लेकिन जीत के साथ कीमत भी आई। लाछित की बीमारी युद्ध के बाद और बढ़ गई। अप्रैल 1672 में, मात्र पचास वर्ष की उम्र में, कालियाबोर में उनका निधन हो गया। सैनिक रोते हुए अपने सेनापति को घर लाए। राजा ने राजकीय अंतिम संस्कार करवाया और जोरहाट के पास हूलोंगापार में उनका मैदाम (कब्र) बनाया गया। आज भी वह टीला शांत, हरा-भरा और गरिमामय खड़ा है—बिल्कुल लाछित की तरह।


अग्नि और मिट्टी की विरासत

लाछित बरफुकन का नाम आज भी असम में साहस, कर्तव्य और देशभक्ति के प्रतीक के रूप में गूंजता है। उनकी कहानी में किले, नौकाएँ और युद्ध-रणनीति जैसे ठोस तत्व तो हैं ही, साथ ही वह नैतिक दृढ़ता और आत्म-बलिदान की भावना से भी भरी है।

सराइघाट में एक रात में बना किला सिर्फ इंजीनियरिंग का चमत्कार नहीं है—यह दबाव में एकता की ताकत का प्रतीक है। अपने मामा को दंड देना कोई क्रूरता की कहानी नहीं, बल्कि यह घोषणा थी कि जब मातृभूमि संकट में हो, तब रिश्तों से ऊपर कर्तव्य होता है।

हर वर्ष 24 नवंबर को असम लाछित दिवस मनाता है। भारतीय सेना एनडीए के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लाछित बरफुकन गोल्ड मेडल देकर सम्मानित करती है और ब्रह्मपुत्र के किनारे 35 फुट ऊँची उनकी प्रतिमा खड़ी है—तलवार हवा में उठाए, उसी नदी की ओर नज़र गड़ाए, जिसने युद्ध भी देखा और आज़ादी भी।

चार शताब्दियाँ बीत चुकी हैं, लेकिन उनकी पुकार— “मेरे लिए मामा से बड़ा मेरा देश है” अब भी असम की पहाड़ियों और नदियों में गूंजती है, याद दिलाती है कि सच्ची देशभक्ति जन्म या खून से नहीं, कर्तव्य और त्याग से मापी जाती है।


“जहाज़ों का भ्रम” — असली रणनीति

असल में, जो कुछ मुगलों ने देखा वह कोई जादू नहीं था, बल्कि युद्धनीति की अद्भुत समझ थी — जहाँ लाचित ने समय, जगह और दृष्टिकोण का ऐसा मेल किया कि दुश्मन को भ्रम हो गया कि उनके सामने असंख्य जहाज़ हैं।


1. “नावों का पुल” — पानी पर जिंदा दीवार

जब युद्ध अपने चरम पर पहुँचा, लाचित ने अपने युद्धपोतों को एक के बाद एक जोड़कर ब्रह्मपुत्र पर एक अस्थायी पुल बनवा दिया। यह रणनीति अहोम अभिलेखों में दर्ज है — इससे सैनिक तेजी से दोनों किनारों पर जा सके और मुगलों को लगा कि नदी पर कोई ठोस दीवार बन गई है।

इसी पुल से अहोम धनुर्धर और तोपची दो दिशाओं से हमला करने लगे — सामने से और किनारों से। मुगलों को ऐसा लगा मानो कुछ ही पलों में नदी पूरी तरह जहाज़ों से भर गई हो। यह कोई जादू नहीं था, बल्कि सही समय और दिशा का अद्भुत उपयोग था।

इस योजना से मुगल एडमिरल मुनव्वर खान मारा गया, तीन वरिष्ठ अधिकारी भी गिरे और पूरी सेना में भगदड़ मच गई। शाम तक हजारों सैनिक डूब गए या मारे गए और राजा राम सिंह को पीछे हटना पड़ा।


2. “केले के पत्तों की चाल” — साधारण पर असरदार धोखा

लाचित की रणनीति में एक और प्रसिद्ध उदाहरण है — केले के पत्तों की चाल। युद्ध से पहले उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि वे केले के पत्तों पर बचा हुआ खाना रखकर नदी में बहा दें।

मुगल सैनिकों ने यह देखा और समझा कि अहोम सेना अभी आराम कर रही है, लड़ाई के लिए तैयार नहीं है। वे निश्चिंत हो गए और तभी लाचित ने हमला बोल दिया।

यह छोटा-सा छल था, लेकिन दुश्मन के मनोविज्ञान की गहरी समझ दिखाता था। यह जहाज़ों का भ्रम नहीं था, लेकिन इससे मुगलों को झूठा भरोसा मिला — और वही उनकी हार का कारण बना।


3. “छिपा हुआ बेड़ा” — जब हमला अचानक हुआ

अभिलेख बताते हैं कि लाचित ने कई युद्धपोतों को नदी की मोड़ों और टापुओं के पीछे छिपा रखा था। जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, ये नावें अचानक निकल आईं और मुगलों पर किनारों से टूट पड़ीं।

मुगलों को लगा जैसे नई सेनाएँ हवा से निकल आई हों। धुएँ और तोपों की गर्जना के बीच यह दृश्य भयावह था। यही दृश्य बाद में “भूतिया जहाज़ों” की कहानियों में बदल गया। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह सब लाचित की योजना और सही समय पर किए गए हमले का परिणाम था।


4. “शब्दों की लड़ाई” — जब चिट्ठियाँ बनीं हथियार

साराइघाट से पहले दोनों सेनापतियों के बीच शब्दों की एक दिलचस्प लड़ाई हुई थी। राजा राम सिंह ने लाचित को अफीम के बीजों की थैली भेजी — यह ताना मारते हुए कि “तुम लोग असंख्य हो, लेकिन कमजोर।” लाचित ने जवाब में रेत से भरी बाँस की नली भेजी — यह संदेश देते हुए, “हम कम हैं, लेकिन एकजुट हैं।”

यह जवाब मुगलों के शिविर में गूँज उठा। उस समय प्रचार या मीडिया नहीं था, लेकिन यह पत्राचार ही मनोवैज्ञानिक युद्ध का सबसे असरदार रूप बन गया।

“भ्रम” को समझना

यह धारणा कि लाचित ने “जहाज़ों का भ्रम” पैदा किया था, कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं, बल्कि एक रूपक थी। मुग़लों की नज़र में जब अचानक असम की कई नावें नदी में एक साथ और तेज़ गति से चलने लगीं, तो वह दृश्य उन्हें किसी चमत्कार जैसा लगा — मानो खुद ब्रह्मपुत्र नदी ने असम की सेना बनकर युद्ध में हिस्सा ले लिया हो।

यह कहानी असम की उस परंपरा को भी दिखाती है जहाँ लोग ताक़त से नहीं, बल्कि बुद्धि, एकता और समझदारी से बड़े-बड़े साम्राज्यों को चुनौती देते हैं। ‘बुरंजी’ जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों में भी लाचित जैसे नायकों की यही छवि मिलती है — बुद्धिमान, अनुशासित और एकजुट नेता की।


लाचित बोरफुकन का असली “जादू”

लाचित का असली जादू किसी भ्रम या छल में नहीं था, बल्कि उनकी स्पष्ट सोच में था। उन्हें पता था कि अगर भूगोल, समय और सैनिकों का मनोबल सही हो, तो कमज़ोरी भी ताक़त बन सकती है।

साराइघाट की लड़ाई में उन्होंने ब्रह्मपुत्र की हर विशेषता का फायदा उठाया — उसकी तेज़ धार, संकरे रास्ते, सुबह की धुंध और स्थानीय नाविकों का कौशल। उनकी रणनीति कोई जादू नहीं थी — यह विज्ञान, कला और देशभक्ति का मेल थी।

चाहे उन्होंने “भूतिया नावें” बनाई हों या नहीं, लाचित ने जो किया, वह इससे कहीं बड़ा था — उन्होंने मुग़ल साम्राज्य को खुद पर शक करने पर मजबूर कर दिया।

और यही किसी सेनापति का सबसे बड़ा जादू होता है। आज भी, जब ब्रह्मपुत्र की सुबह की धुंध में दूर कहीं झिलमिलाती रोशनी दिखती है,
लोग कहते हैं —

“वो नावें नहीं हैं, वो लाचित की सेना की आत्माएँ हैं, जो अब भी असम की नदियों की रखवाली करती हैं।”

और शायद, कथाएँ ऐसे ही जन्म लेती हैं — सच्चाई को मिटाने के लिए नहीं, बल्कि उसे पंख देने के लिए।


लाचित बोरफुकन के कम-ज्ञात तथ्य

असम के अडिग प्रहरी की कहानी


1. सेवा से सेनापति तक

लाचित बोरफुकन बनने से पहले उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई। उन्होंने कई जिम्मेदार पदों पर काम किया —

  • घोरा बरूआ: शाही अस्तबल के प्रमुख

  • दुलिया बरूआ: दरबार और अनुशासन के प्रभारी

  • सिमालुगुरिया फुकन: सैन्य दलों के अधिकारी

  • डोलाकाशरिया बरूआ: शाही सुरक्षा दस्ते के कमांडर

लाचित न केवल योद्धा थे बल्कि पढ़े-लिखे भी थे। मुग़ल सेनापति मीर जुमला के साथ हुए युद्धों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा,
और वही अनुभव आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी ताक़त बना।


2. युद्ध के साथ शासन में भी कुशल

लाचित केवल सेनापति नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी प्रशासक भी थे। उन्होंने निचले असम की व्यवस्था को मज़बूत किया, जनगणना करवाई, नए गाँव बसवाए और महिलाओं के लिए हस्तकला केंद्र खोले। उनका मानना था कि देश की असली ताक़त जनता है — सिर्फ़ सेना नहीं।


3. “कछारी पत्र” की घटना

एक बार कछारी राज्य ने उन्हें पत्र में “नारायण राजा” यानी “लोअर असम के राजा” कहा। लाचित ने इसे अपने अहोम राजा का अपमान माना और सख़्त उत्तर दिया। उन्होंने साफ़ किया — “मैं भले ही यहाँ शासन करता हूँ, पर मेरी निष्ठा सिर्फ़ अहोम सिंहासन के प्रति है।”


4. रिश्ते और राजनीति

लाचित का परिवार अहोम राजघराने से गहराई से जुड़ा था। उनकी बहन पाखरी गाभारू तीन अहोम राजाओं की रानी बनीं। उनकी भांजी रमणी गाभारू को मीर जुमला के आक्रमण के बाद मुग़ल दरबार में संधि के रूप में भेजा गया — वह एक राजनीतिक बंधक थीं।
लाचित ने तय किया कि अब असम कभी अपमान नहीं सहेगा।


5. मुग़लों की अफ़वाहें

राजा राम सिंह ने अफ़वाह फैलाई कि लाचित ने रिश्वत लेकर सेना छोड़ दी। लेकिन राजा चक्रध्वज सिंह का भरोसा डगमगाया नहीं। यह विश्वास ही लाचित की सबसे बड़ी शक्ति बना।


6. मुग़ल तोपों का इनकार

जब मुग़लों ने मज़ाक में उन्हें तोपें देने की पेशकश की, लाचित ने गर्व से मना कर दिया — “जब तक हमारी रगों में खून है, हम अपने दम पर लड़ेंगे।” उनके लिए सम्मान और आत्मनिर्भरता सबसे ऊपर थी।


7. छापामार युद्ध के उस्ताद

लाचित को खुले मैदान की नहीं, नदियों और जंगलों की लड़ाई पसंद थी। वे मुग़ल सेना को ऐसी जगह लाते जहाँ उन्हें रास्ते और माहौल समझ न आए। उनकी रणनीति थी — तेज़ हमला करो, और गायब हो जाओ। यह वही तरीका था जो बाद में “गुरिल्ला युद्ध” कहलाया।


8. विजय के बाद दया

साराइघाट की जीत के बाद लाचित ने सैनिकों को आदेश दिया — “पीछे हटते दुश्मनों पर वार मत करो।” उनका मानना था कि जहाँ जीत मिल जाए, वहाँ बदला बेकार है।


9. आधुनिक भारत में सम्मान

हर साल 24 नवंबर को लाचित दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में ‘लाचित बोरफुकन स्वर्ण पदक’ सर्वश्रेष्ठ कैडेट को दिया जाता है। 2024 में जोरहाट में उनके समाधि स्थल पर 125 फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित की गई। वह आज भी असम की वीरता और सम्मान का प्रतीक है।


10.वो शख्सियत, जो समय से बड़ी थी

लाचित की कहानी केवल असम की नहीं, बल्कि सच्चे नेतृत्व की मिसाल है। उन्होंने दिखाया कि असली जीत दूसरों को हराने में नहीं,
बल्कि कर्तव्य, ईमानदारी और देशभक्ति निभाने में है। उनका जीवन सिखाता है — राष्ट्र की रक्षा तलवार से पहले चरित्र और एकता से शुरू होती है।


वह दीवार जो कभी नहीं गिरी

इतिहासकार बहस कर सकते हैं कि साराइघाट की “एक रात में तैयार हुई दीवार” सच थी या नहीं, या उनके चाचा की कथा समय के साथ बढ़ा-चढ़ाकर सुनाई गई हो।

लेकिन इन कहानियों के बिना भी सच्चाई वही रहती है—जब असम संकट की आख़िरी सीमा पर था, तभी एक व्यक्ति के अटूट साहस ने उसे थाम लिया।

लचित की वह दीवार सिर्फ मिट्टी की नहीं थी—वह संकल्प की दीवार थी और उसी की तरह, असम की आत्मा भी आज तक अडिग है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top