दक्षिण ब्लॉक में वह गर्म दोपहर (1974)
मार्च 1974 की एक तपती दोपहर थी। युवा और आत्मविश्वासी सद्दाम हुसैन — जो उस समय इराक़ का राष्ट्रपति नहीं, पर सत्ता का असली केंद्र बन चुका था — नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने पहुँचा। ख़ाकी सैन्य वर्दी, सलीके से तराशी हुई मूँछें और शांत, पर प्रभावशाली व्यक्तित्व — उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि यही व्यक्ति आगे चलकर आधुनिक अरब जगत का सबसे चर्चित और भय का पर्याय बन जाएगा।
हालांकि भारत के लिए, सद्दाम का इराक एक अपवाद था — मध्य पूर्व का वह दुर्लभ मित्र, जिसने तब भी साथ निभाया जब पूरा इस्लामी जगत भारत से मुँह मोड़ चुका था।
प्रारंभिक जीवन और विचारधारा की नींव (1937–1957)
सद्दाम हुसैन अब्दुल मजीद अल-तिकरिती का जन्म 28 अप्रैल 1937 को अल-अवजा नामक छोटे से गाँव में हुआ, जो तिकरित (इराक़) के पास है। बचपन गरीबी और कठोरता में बीता। उसके पिता का निधन जन्म से पहले हो गया था और सौतेला पिता हिंसक और क्रूर था। इस अत्याचार से बचने के लिए दस वर्ष की उम्र में सद्दाम घर छोड़कर भाग गया और अपनी माँ के भाई ख़ैरुल्लाह तलफ़ाह के पास शरण ली — वह वही व्यक्ति था जिसे अंग्रेज़ों ने उपनिवेश-विरोधी गतिविधियों के कारण जेल में डाल रखा था।
तलफ़ह ने न सिर्फ उसे सुरक्षा दी, बल्कि उसके भीतर औपनिवेशिक ताकतों और पश्चिमी शोषण के प्रति गहरा विरोध भी पैदा किया। ब्रिटिश नियंत्रण और तेल कंपनियों के प्रभुत्व से पीड़ित इराक़ में ऐसी सोच पनपना स्वाभाविक था।
1955 तक वह बग़दाद पहुँच चुका था। वहाँ उसने अरब सोशलिस्ट बाथ पार्टी का दामन थामा — एक ऐसा आंदोलन जो अरब राष्ट्रवाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का संगम था। सद्दाम ने राजतंत्र-विरोधी छात्र आंदोलनों में हिस्सा लिया और ऐसा इराक़ सपना देखा जो न पूँजीवादी हो, न साम्यवादी — बल्कि पूरी तरह अरबी और स्वतंत्र हो।
इन्हीं वर्षों में उसमें यह विश्वास पक्का हो गया जो आगे चलकर उसके पूरे जीवन का सूत्र बन गया — “इराक़ को कभी किसी विदेशी शक्ति के आगे नहीं झुकना चाहिए, और उसकी स्वतंत्रता की कीमत चाहे कठोरता ही क्यों न हो।”
क्रांति और निर्वासन (1959–1968)
1958 में एक तख़्तापलट में इराक़ की राजशाही समाप्त हो गई। मगर नए प्रधानमंत्री अब्दुल करीम क़ासिम के सोवियत संघ से बढ़ते संबंधों ने बाथ पार्टी और पश्चिम दोनों को असहज कर दिया। अक्टूबर 1959 में सद्दाम ने क़ासिम की हत्या की साजिश में हिस्सा लिया। हमला असफल रहा और भागते समय वह गोली लगने से घायल हो गया।
वह बग़दाद से भागकर पहले सीरिया और फिर मिस्र पहुँचा — जहाँ उसे अमेरिकी खुफ़िया एजेंसियों की निगरानी में शरण मिली, जो उसे उस समय साम्यवाद के विरुद्ध एक उपयोगी मोहरा मानती थीं। बाद के वर्षों में प्रकाशित सीआईए दस्तावेज़ों के अनुसार, काहिरा में सद्दाम के ठिकाने को उन्हीं एजेंसियों ने वित्तीय सहायता दी थी।
काहिरा विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई (1962–63) के दौरान उसने नासिर के राष्ट्रवाद और विश्व राजनीति के दोहरे खेल को बारीकी से समझा — जहाँ सिद्धांत अक्सर हितों के सामने झुक जाते हैं।
1963 में बाथ पार्टी ने इराक़ में तख़्तापलट किया, और क़ासिम को मार दिया गया। पर शासन जल्द ही गिर गया। 1964 में सद्दाम को जेल हुई, 1966 में वह भाग निकला, और बाथ पार्टी के गुप्त संगठन को फिर से खड़ा किया। उसकी योजना बनाने की क्षमता और निर्दय अनुशासन ने सबको प्रभावित कर दिया।
17 जुलाई 1968 को बाथ पार्टी ने दोबारा सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। अहमद हसन अल-बक्र राष्ट्रपति बने, लेकिन असली शक्ति सद्दाम के हाथों में थी — जो उपराष्ट्रपति और क्रांतिकारी कमान परिषद का प्रमुख था। उसने पर्दे के पीछे वफादारी, भय और जासूसी का ऐसा तंत्र खड़ा किया कि पूरा देश उसी के इशारों पर चलने लगा।
सत्ता का सुदृढ़ीकरण और तेल का राष्ट्रीयकरण (1968–1979)
1970 के दशक में सद्दाम हुसैन ने इराक़ को एक क्षेत्रीय ताक़त में बदल दिया। औपचारिक रूप से वह उपराष्ट्रपति था, लेकिन हक़ीक़त में पूरा शासन उसी के नियंत्रण में था।
1972 में उसने इराक़ पेट्रोलियम कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया — पश्चिमी तेल कंपनियों के कब्ज़े से देश को मुक्त कर लिया। यह कदम अमेरिका और ब्रिटेन के आर्थिक हितों को सीधी चुनौती थी, और इराक़ की दिशा बदल दी। तेल से हुई आय का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और बुनियादी ढाँचे पर हुआ। मुफ़्त शिक्षा, सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा, महिलाओं का सशक्तिकरण — इन सबके चलते इराक़ उस समय का सबसे प्रगतिशील अरब देश बन गया।
सद्दाम ने “सांस्कृतिक क्रांति” शुरू की — जिसमें मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता और गौरव को पुनर्जीवित किया गया। उसने बाबुल के खंडहरों का पुनर्निर्माण कराया, इराक़ की पूर्व-इस्लामी विरासत पर गर्व जताया और धार्मिक उग्रवाद को सख़्ती से रोका। वह वहाबी कट्टरवाद के खिलाफ़ खुलकर बोला और कहा — “ये पंथ पश्चिम के एजेंट हैं, अरबों के शत्रु।”
1970 के दशक के अंत तक इराक़ में साक्षरता दर 30% से बढ़कर 80% तक पहुँच गई थी। महिलाएँ विश्वविद्यालयों, सेना और पुलिस में शामिल होने लगीं। बग़दाद एक आधुनिक, आत्मनिर्भर राजधानी बन चुका था — पश्चिमी प्रभाव से मुक्त एक स्वतंत्र इराक़ का प्रतीक।
भारत से संबंध : धर्म से परे मित्रता (1974–1980 के दशक)
इसी दौर में इराक़ और भारत के बीच असाधारण निकटता विकसित हुई। मार्च 1974 में उपराष्ट्रपति सद्दाम हुसैन भारत आए और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले। दोनों में अद्भुत राजनीतिक समानता थी — दोनों धर्मनिरपेक्ष, आत्मविश्वासी और साम्राज्यवाद-विरोधी।
भारत, गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख स्तंभ था, जबकि इराक़ एक तेल-संपन्न स्वतंत्र अरब शक्ति के रूप में उभर रहा था। 1975 में इंदिरा गांधी ने भी इराक़ की यात्रा की, जिससे दोनों देशों के संबंध और मज़बूत हुए।
इराक़ भारत का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता बना, और उसने भारत को दीर्घकालिक अनुबंधों और सस्ती दरों पर तेल दिया। बग़दाद ने मथुरा रिफ़ाइनरी के निर्माण में वित्तीय सहायता दी और भारत की कंपनियाँ — जैसे इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड, भेल और ओएनजीसी — इराक़ के औद्योगिक विकास में सहभागी बनीं। लगभग दो लाख भारतीय वहाँ इंजीनियर, चिकित्सक और पेशेवर के रूप में कार्यरत थे — यह आपसी भरोसे की मिसाल थी।
सद्दाम ने हमेशा भारत का समर्थन किया। कश्मीर को उसने “भारत का आंतरिक मामला” बताया और इस मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष में कभी खड़ा नहीं हुआ। 1992 में बाबरी मस्जिद विवाद के बाद भी उसने भारत की आलोचना नहीं की — जबकि अन्य मुस्लिम देशों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी।
भारत ने भी उसके कठिन समय में चुपचाप साथ निभाया। संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों और पश्चिमी दबावों के बावजूद भारत ने ऑयल-फ़ॉर-फ़ूड कार्यक्रम के तहत इराक़ से व्यापार जारी रखा — तेल के बदले गेहूँ, दवाइयाँ और मशीनें भेजीं।
सद्दाम भारत को धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत समान राष्ट्र के रूप में देखता था — एक ऐसा देश जो, इराक़ की तरह, उपनिवेशवाद के खिलाफ़ अपने दम पर खड़ा हुआ था। उसके शासन में पाकिस्तानी फ़िल्में प्रतिबंधित थीं, जबकि भारतीय सिनेमा राष्ट्रीय टेलीविज़न पर दिखाया जाता था।
संघर्ष और युद्ध : विद्रोह की कीमत (1980–1991)
सद्दाम की विदेशी शक्तियों के सामने न झुकने की नीति की भारी कीमत देश को चुकानी पड़ी। 1980 में, ईरान में आयतुल्लाह खुमैनी की इस्लामी क्रांति से डरकर कि उसका प्रभाव इराक़ के शिया बहुल हिस्सों में फैल जाएगा, उसने ईरान पर आक्रमण कर दिया।
ईरान–इराक़ युद्ध (1980–1988) 20वीं सदी के सबसे खूनी संघर्षों में से एक था — जिसमें दस लाख से अधिक लोग मारे गए।
यह युद्ध इराक़ की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ा, लेकिन अरब जगत में सद्दाम “फ़ारसी प्रभाव के विरुद्ध अरबों के रक्षक” के रूप में देखा जाने लगा। उसने कहा था —
“मैंने यह युद्ध अपने लिए नहीं, अरबों के लिए लड़ा है। अगर इराक़ ने ईरान को न रोका होता, तो खुमैनी की क्रांति बाकी अरब देशों तक पहुँच जाती।”
इस युद्ध में अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उसे अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया — खुफ़िया जानकारी, उपग्रह चित्र और हथियार देकर।
पर यह समर्थन केवल सुविधा के लिए था, दोस्ती के लिए नहीं। जैसे ही उनका स्वार्थ पूरा हुआ, वे सब उसके खिलाफ़ हो गए।
युद्ध समाप्त होते-होते इराक़ पर भारी कर्ज़ चढ़ चुका था — ख़ासकर कुवैत और सऊदी अरब से, जिन्होंने युद्ध के दौरान उसे धन दिया था। जब कुवैत ने तेल उत्पादन बढ़ाकर दाम गिरा दिए, तो सद्दाम ने इसे आर्थिक युद्ध माना।
अगस्त 1990 में उसने कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया और उसे इराक़ का 19वाँ प्रांत घोषित किया। पश्चिम, जिसने कभी उसी को हथियार दिए थे, अब उसे “दूसरा हिटलर” कहने लगा। 1991 में अमेरिका के नेतृत्व में ऑपरेशन डेज़र्ट स्टॉर्म शुरू हुआ — जिसने इराक़ की सेना और उसकी अर्थव्यवस्था दोनों को तबाह कर दिया।
प्रतिबंध, पीड़ा और अमेरिकी पाखंड (1991–2003)
संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध आधुनिक इतिहास के सबसे कठोर प्रतिबंधों में से थे। इराक़ को तेल निर्यात करने और आवश्यक वस्तुएँ आयात करने से पूरी तरह रोक दिया गया।दवाइयाँ, भोजन और स्वच्छ पानी तक दुर्लभ हो गए। यूनिसेफ़ के अनुसार, 1991 से 1998 के बीच पाँच लाख से अधिक इराक़ी बच्चों की मौत भूख और बीमारियों से हुई।
पश्चिमी अधिकारी इसे “आकस्मिक क्षति” कहते रहे। जब अमेरिकी विदेश मंत्री मैडलिन ऑलब्राइट से पूछा गया कि क्या 5,00,000 बच्चों की मौत “क़ीमत के लायक” थी, तो उन्होंने निर्दयता से कहा—
“हमें लगता है, यह क़ीमत चुकाना उचित था।”
इराक़ी जनता के लिए यह न्याय नहीं, बल्कि सामूहिक दंड था। जैसे-जैसे कठिनाई बढ़ी, सद्दाम की पकड़ और मज़बूत होती गई।
उसने इन प्रतिबंधों को पश्चिमी दोहरे मापदंडों का उदाहरण बताते हुए राष्ट्रवादी भावना को भड़काया—
“हमे सज़ा इसलिए दी जा रही है कि हमने स्वतंत्र रहना चुना, आक्रामक होने के कारण नहीं।”
इसी बीच, वही देश जो उसके तानाशाही शासन की आलोचना कर रहे थे, उसी क्षेत्र में उससे कहीं अधिक क्रूर शासनों से मित्रता निभा रहे थे। इससे एक बार फिर साबित हुआ कि मानवाधिकार की बातें सिर्फ़ तेल राजनीति की आड़ थीं।
बग़दाद का पतन (2003–2006)
11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद, अमेरिका ने नए “दुश्मनों” की तलाश शुरू की। बिना किसी ठोस सबूत के, उसने सद्दाम पर जनसंहारक हथियार (WMDs) रखने और आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया — दोनों ही दावे बाद में झूठे साबित हुए।
19 मार्च 2003 को अमेरिकी सेनाएँ इराक़ में घुस गईं। कुछ ही हफ्तों में बग़दाद गिर गया। टीवी चैनलों पर सद्दाम की मूर्ति गिराने का दृश्य दिखाया गया — एक नाटकीय प्रदर्शन, जिसे पश्चिमी दर्शकों के लिए “विजय” का प्रतीक बनाया गया।
पर इसके बाद जो हुआ, वह केवल अराजकता थी —लूटपाट, सांप्रदायिक हिंसा, और एक सुसंगठित राज्य का विघटन।
13 दिसंबर 2003 को सद्दाम को तिकरित के पास एक भूमिगत ठिकाने से गिरफ्तार कर लिया गया।
अमेरिकी समर्थित अदालत ने उसे 1982 के दुजैल नरसंहार के लिए दोषी ठहराया और 30 दिसंबर 2006 को फाँसी दे दी गई। उसके आख़िरी शब्द reportedly ये थे—
“तुम्हारा भी यही अंजाम होगा, कायरों।”
उसकी मृत्यु के बाद, इराक़ का कभी राष्ट्रीयकृत तेल क्षेत्र बीपी, शेल और एक्सॉनमोबिल जैसी पश्चिमी कंपनियों के हाथों में चला गया —
जो काम युद्धों से नहीं हो सका था, वह “लोकतंत्र” के नाम पर पूरा हो गया।
विरासत और विवेचना : व्यक्ति, मिथक और गलत समझा गया नेता
पश्चिम के लिए सद्दाम हुसैन एक आदर्श तानाशाह था — निर्दयी, आत्ममुग्ध और अड़ियल। लेकिन अरब जगत और भारत के लिए वह एक जटिल प्रतीक रहा — स्वाधीनता का प्रतीक, जिसने विश्व शक्तियों को चुनौती दी और उसकी भारी क़ीमत चुकाई।
वह संत नहीं था — उसकी जेलें भरी थीं, उसके युद्ध निर्दय थे। फिर भी उसने रेत और स्वाभिमान से एक आधुनिक राष्ट्र गढ़ा —
जहाँ शिक्षा मुफ़्त थी, महिलाएँ सम्मानित थीं, और विदेशी सेनाएँ कदम रखने से डरती थीं।
सद्दाम ने एक बार पूछा था —
“जब अमेरिका इराक़ में मस्जिदें गिराता है, तब तुम कहाँ सोते हो?”
यह सिर्फ़ धर्म से जुड़ा प्रश्न नहीं था, बल्कि दुनिया के पाखंड पर सीधा प्रहार था। उसके पतन के बाद इराक़ सांप्रदायिक हिंसा, भ्रष्टाचार और विदेशी कब्ज़े में बँट गया। जिसे “मुक्ति” कहा गया था, उसने शांति नहीं, बल्कि अराजकता और कट्टरता की वापसी दी।
प्रचार से मुक्त इतिहास शायद एक दिन उसे अलग नज़र से देखेगा — अमेरिका के बनाए खलनायक के रूप में नहीं, बल्कि उस आख़िरी अरब नेता के रूप में जिसने झुकने से इनकार किया।
सद्दाम हुसैन की विरासत : आलोचनाएँ और बचाव
I. सद्दाम हुसैन के विरुद्ध प्रमुख आलोचनाएँ
सद्दाम हुसैन का शासन (1979–2003) आधुनिक राजनीतिक इतिहास के सबसे विवादास्पद कालों में गिना जाता है। इतिहासकारों, मानवाधिकार संगठनों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने उसके शासन की आलोचना तानाशाही, हिंसा और विनाशकारी नीतियों के लिए की है। वह खुद को अरब स्वाधीनता का रक्षक बताता रहा, लेकिन सत्ता की उसकी भूख ने असंख्य निर्दोषों की बलि ली।
1. मानवाधिकार उल्लंघन और दमन
सद्दाम का इराक़ कड़े नियंत्रण, जासूसी और दमन से भरा हुआ था। बाथ पार्टी का शासन गुप्तचर एजेंसियों पर टिका था, जो भय फैलाने के लिए यातना, बलात्कार, गैर-न्यायिक हत्या जैसे हथकंडे अपनाती थीं।
इतिहासकार एरन एम. फॉस्ट के अनुसार, उसका शासन पूर्णतानाशाही (Totalitarian) था — जहाँ आतंक, पुरस्कार और व्यक्तिपूजा तीनों के सहारे सद्दाम को “राष्ट्र के उद्धारक” के रूप में पेश किया गया। किसी भी प्रकार का विरोध — चाहे राजनीतिक, जातीय या धार्मिक — निर्दय सज़ा का कारण बनता था।
ईरान–इराक़ युद्ध (1980–1988) के दौरान सद्दाम की सेनाओं ने 20वीं सदी के सबसे भीषण युद्ध अपराधों में से कुछ किए। सबसे कुख्यात था हलबजा रासायनिक हमला (मार्च 1988) — जहाँ हज़ारों कुर्द नागरिक सरसों गैस और नर्व एजेंटों से मारे गए।
बाद में पश्चिमी खुफ़िया रिपोर्टों से पता चला कि अमेरिका ने उस समय इराक़ को मैदान-ए-जंग की जानकारी दी थी — जो अप्रत्यक्ष रूप से इन अत्याचारों में उसकी सहभागिता को दर्शाता है। यह दाग़ आज भी अमेरिकी विदेश नीति की नैतिकता पर बना हुआ है।
युद्धकाल के अलावा भी दमन जारी रहा। पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और असहमति रखने वालों को बिना मुक़दमे मार दिया जाता था। 1990 में ब्रिटिश पत्रकार फ़र्ज़ाद बाज़ोफ़्ट को “जासूसी” के आरोप में फाँसी दी गई — क्योंकि वह एक हथियार कारखाने में हुए विस्फोट की जाँच कर रहे थे।
यह घटना दुनिया भर में निंदा का कारण बनी और सद्दाम की असहमति के प्रति असहिष्णुता का प्रतीक बन गई।
2. आक्रामक युद्ध और रणनीतिक भूलें
सद्दाम की विदेश नीति उतनी ही निर्दयी थी जितनी आत्मविनाशकारी। 2 अगस्त 1990 को कुवैत पर हमला करने का उसका निर्णय पूरी दुनिया के लिए चौंकाने वाला था। इस आक्रमण की विश्वभर में निंदा हुई, और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश ने उसकी तुलना उन अत्याचारों से की जो “यहाँ तक कि एडॉल्फ हिटलर ने भी नहीं किए थे।”
1991 के खाड़ी युद्ध के दौरान पश्चिमी मीडिया ने सद्दाम और हिटलर के बीच हज़ारों बार तुलना की — यह उसकी वैश्विक बदनामी का प्रतीक था।
इतिहासकार स्टीव कॉल के अनुसार, प्रतिष्ठा और शक्ति के प्रति सद्दाम का मोह उसे वास्तविकता से अंधा बना गया था। खाड़ी युद्ध के बाद उसने यह झूठा भ्रम फैलाया कि उसके पास विनाश के हथियार (WMDs) हैं, ताकि वह अपने घरेलू और विदेशी शत्रुओं को भयभीत कर सके। पर यह छल उसी पर उलटा पड़ा — यही दावा 2003 में अमेरिका के आक्रमण का प्रमुख आधार बना।
1991 की हार की अपमानजनक स्मृति ने उसके निर्णयों को संदिग्ध और संदेहग्रस्त बना दिया, और अंततः उसी ने उसके पतन की राह तैयार की।
3. मीडिया की दुष्प्रचार और प्रचार-युद्ध
पश्चिमी मीडिया में सद्दाम हुसैन की छवि अक्सर अतिशयोक्ति और मनगढ़ंत कहानियों से गढ़ी गई। 1990 में “इन्क्यूबेटर बेबी” नामक कहानी फैलाई गई, जिसमें झूठा दावा किया गया कि इराकी सैनिकों ने कुवैती अस्पतालों से नवजात शिशुओं को निकालकर मरने के लिए छोड़ दिया।
बाद में यह कहानी प्रचार का एक गढ़ा हुआ झूठ साबित हुई — यह दिखाता है कि “सद्दाम नामक राक्षस” की छवि को युद्ध के औचित्य के लिए जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था।
11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद यह कथा और गहरी हो गई। हालाँकि इराक का अल-कायदा से कोई प्रमाणिक संबंध नहीं था, फिर भी अमेरिकी जनता को झूठी सूचनाओं के ज़रिए यह यक़ीन दिलाया गया कि सद्दाम ने आतंकवादियों की मदद की थी। सर्वेक्षणों के अनुसार, लगभग 78% अमेरिकियों को यह विश्वास था।
मनोवैज्ञानिक जेरॉल्ड एम. पोस्ट, जिन्होंने सीआईए के लिए तानाशाहों का अध्ययन किया था, ने चेताया था कि सद्दाम को “पागल” कहना न केवल गलत, बल्कि ख़तरनाक है। उनके अनुसार, सद्दाम एक निर्दयी लेकिन तार्किक यथार्थवादी था — ऐसा व्यक्ति जो सत्ता को पूर्ण नियंत्रण के रूप में समझता था, न कि सनक के रूप में।
4. शासन के बाद का अराजक दौर और स्थायी परिणाम
2003 में अमेरिका-नेतृत्व वाले आक्रमण ने सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाया, पर इसके साथ ही मध्य पूर्व में अस्थिरता की एक लंबी श्रृंखला शुरू हो गई। बाथ पार्टी और इराकी सेना को भंग कर देने से एक ऐसा शून्य बना जिसे सांप्रदायिक मिलिशियाओं, जिहादी संगठनों और ईरान समर्थित गुटों ने भर दिया।
इतिहासकार स्टीव कॉल सहित कई विद्वान मानते हैं कि अमेरिका इस बात का अनुमान नहीं लगा पाया था कि शासन के ढाँचे के ध्वस्त होते ही पूरा देश खूनखराबे में डूब जाएगा। इसी अराजकता ने आगे चलकर आईएसआईएस (ISIS) के उदय को जन्म दिया।
युद्ध ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया और इराक की कभी सशक्त शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था तबाह हो गई।
पश्चात दृष्टि से देखा जाए तो यद्यपि सद्दाम का शासन क्रूर था, उसकी 2006 में हुई फाँसी एक ऐसे लंबे अराजक काल की शुरुआत बनी,
जिसने कई इराकियों को यह कहने पर मजबूर कर दिया — “कम से कम सद्दाम के समय हम सुरक्षित थे।”
II. सद्दाम हुसैन के पक्ष में दृष्टिकोण और सीमित बचाव
सद्दाम हुसैन की निर्दयता और हिंसा अस्वीकार्य है, लेकिन कई इतिहासकारों और विश्लेषकों ने उसके शासन के कुछ पहलुओं को
सिर्फ़ निंदा से परे जाकर संदर्भ सहित समझने की आवश्यकता बताई है। उनका तर्क है कि उसकी क्रूरता के बावजूद, उसने आधुनिकता, सामाजिक स्थिरता और राष्ट्रीय गर्व की भावना को भी जन्म दिया।
1. आधुनिकता, स्थिरता और सामाजिक सुधार
1968 से 1979 के बीच उपराष्ट्रपति और फिर राष्ट्रपति रहते हुए, सद्दाम ने इराक के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे में बड़े परिवर्तन किए।
1972 में उसने इराक पेट्रोलियम कंपनी का राष्ट्रीयकरण किया, जिससे तेल की आय सीधे देश के विकास में लगाई जा सकी।
उसने मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा, अनिवार्य शिक्षा और ढाँचेगत विकास कार्यक्रम शुरू किए, जिससे इराक अरब दुनिया के सबसे साक्षर देशों में गिना जाने लगा।
1988 में यूनेस्को ने इराक को उसकी साक्षरता मुहिम के लिए पुरस्कृत किया — यह उस दौर की सामाजिक प्रगति का दुर्लभ अंतरराष्ट्रीय स्वीकार था। सद्दाम ने महिलाओं की शिक्षा, धर्मनिरपेक्ष शासन और सरकारी रोज़गार को बढ़ावा दिया —
इसी कारण इराक का मध्य वर्ग उसे सम्मान की दृष्टि से देखता था।
कई इराकी आज भी याद करते हैं — “सद्दाम के समय हमें सुरक्षा, शिक्षा, बिजली और गरिमा मिली थी।” यह भावना उस अव्यवस्था और अभाव से बिलकुल विपरीत है जो उसके पतन के बाद फैल गई।
2. भू-राजनीतिक समझदारी और रणनीतिक गठबंधन
सद्दाम का शुरुआती नेतृत्व अद्भुत राजनीतिक कौशल का उदाहरण था। ईरान–इराक युद्ध के दौरान उसने अमेरिका और सोवियत संघ — दोनों के साथ संबंधों का संतुलन बनाए रखा और दोनों से सैन्य व खुफिया सहयोग प्राप्त किया।
इतिहासकार स्टीव कॉल लिखते हैं कि सद्दाम शक्ति राजनीति को असाधारण गहराई से समझता था — वह बड़ी शक्तियों से रियायतें लेना जानता था, साथ ही इराक की संप्रभुता को सुरक्षित रखता था।
1980 के दशक में अमेरिका ने उसे ईरान की इस्लामी क्रांति के ख़िलाफ़ रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखा। उस समय उसका नेतृत्व मजबूत और व्यावहारिक माना जाता था, जब तक कि कुवैत पर हमला कर उसने अंतरराष्ट्रीय समर्थन खो नहीं दिया।
3. यथार्थवादी शासक और नीतिगत दृष्टि
कई विश्लेषकों, जिनमें जेरॉल्ड एम. पोस्ट भी शामिल हैं, का मानना है कि सद्दाम हुसैन कोई सनकी या अविवेकी तानाशाह नहीं था —
वह एक तार्किक और पूर्वानुमेय शासक था।
उसका शासन डर और नियंत्रण पर टिका था, लेकिन यह सब एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति के तहत था।
2003 के बाद मिले उसके हज़ारों घंटों के अभिलेख, बैठकों, आदेशों और ज्ञापनों के रूप में, आज राजनीतिक विज्ञान में तानाशाही शासन के अध्ययन का आधार हैं। ये अभिलेख दिखाते हैं कि कैसे गलतफहमी और प्रचार अमेरिकी विदेश नीति के मूल्यांकन को प्रभावित करते रहे।
4. क्षेत्रीय स्थिरता और “उत्तर-सद्दाम” विरोधाभास
कई इतिहासकारों और पत्रकारों का मत है कि भले ही सद्दाम का शासन दमनकारी था, फिर भी उसने क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखी थी।
उसके पतन ने ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने वाली धर्मनिरपेक्ष दीवार को गिरा दिया और इराक को सांप्रदायिक विभाजन में धकेल दिया।
पत्रकार सैंड्रा मैकी अपनी पुस्तक The Reckoning: Iraq and the Legacy of Saddam Hussein में लिखती हैं कि सद्दाम का शासन जातीय, जनजातीय और राजनीतिक शक्तियों के जटिल संतुलन पर टिका था — एक ऐसा केंद्रीकृत ढाँचा जो भले ही कठोर था,
पर समाज को बाँधे रखता था।
यहाँ तक कि आलोचक स्टीव कॉल भी स्वीकार करते हैं — “दुनिया भले ही सद्दाम हुसैन के बिना बेहतर हो, पर उसके उद्देश्यों को समझना इस क्षेत्र के भू-राजनीतिक यथार्थ को मानवीय दृष्टि से देखने जैसा है।”
सद्दाम का हटाया जाना, बिना किसी ठोस उत्तराधिकारी ढाँचे के, यह दिखाता है कि तानाशाही का अंत करना जितना आसान है, उसके बाद शासन चलाना उतना ही कठिन।
निष्कर्ष: एक संप्रभु का पतन, एक पाखंड का उदय
इतिहास — जो विजेताओं द्वारा लिखा जाता है — सद्दाम हुसैन को हमेशा एक तानाशाह के रूप में दर्शाता आया है: एक निर्दयी शासक, जिसने भय से शासन किया, लापरवाह युद्ध लड़े और अपने राष्ट्र को तबाही में झोंक दिया।
लेकिन इस कथा के नीचे एक गहरी सच्चाई छिपी है — सद्दाम की मौत उसकी निर्दयता के कारण नहीं हुई, बल्कि उसकी स्वतंत्रता के कारण हुई।
अमेरिका की नज़र में उसका सबसे बड़ा अपराध मानवाधिकारों का नहीं, आज्ञा न मानने का था। जब उसने इराक का तेल राष्ट्रीयकृत किया, तो उसने उन पश्चिमी कंपनियों को ललकारा जिन्होंने दशकों तक अरब जगत का शोषण किया था।
जब उसने धार्मिक कट्टरता को ठुकराया, तो उसने उस वैचारिक अराजकता को चुनौती दी, जिसे पश्चिम बाद में “आतंक के खिलाफ़ युद्ध” कहकर लड़ने लगा।
जब उसने भारत से एक प्राचीन सभ्यता के समकक्ष के रूप में बात की, तो उसने एशिया और मध्य पूर्व में पश्चिमी प्रभुत्व की कथा को चुनौती दी।
अमेरिका ने उसे हथियार दिए जब उसे उनकी ज़रूरत थी, फिर उसी को राक्षस कहकर मिटा दिया जब हालात बदले। जिन रसायनों से उसने युद्ध किया, वे भी उन्हें ही दिए गए थे जिन्होंने बाद में उसे उन्हीं के इस्तेमाल का दोषी ठहराया।
वॉशिंगटन का नैतिक आक्रोश मानवाधिकारों के लिए नहीं था — वह तेल, आज्ञाकारिता और दिखावे के लिए था। जब सद्दाम ने अपने संसाधनों पर खुद नियंत्रण रखा, वह ख़तरा बन गया। जब उसने तेल उद्योग का निजीकरण ठुकराया, तो वह निशाना बन गया और जब उसने अमेरिका की नैतिक नेतृत्व की दावेदारी पर प्रश्न उठाया — उसने अपना भाग्य तय कर दिया।
2003 का आक्रमण मुक्ति नहीं था, वह लोकतंत्र के नाम पर की गई एक हत्या थी। दुनिया ने देखा — कैसे एक गौरवशाली राष्ट्र को बमों से मलबे में बदला गया, उसकी संस्थाएँ मिटा दी गईं और उसकी एकता को टुकड़ों में बाँट दिया गया।
उन्होंने एक व्यक्ति को मारा, पर उसके साथ ही एक राष्ट्र की संप्रभुता को भी दफना दिया। आज का इराक उसी पाखंड का स्मारक है — एक ऐसा देश जो बँट चुका है, अपमानित है, और बाहरी शक्तियों के अधीन है। अमेरिका, जिसने “इराक को बचाने” का दावा किया, वहीं अब उसकी तेल संपदा पर क़ब्ज़ा किए हुए है।
तो इतिहास को यह सवाल पूछना ही होगा — वास्तविक अपराधी कौन था? सद्दाम, जिसने कठोर शासन से देश को एकजुट रखा, या अमेरिका, जिसने झूठे बहानों में एक पूरे राष्ट्र को तबाह कर दिया?
अपने अंतिम क्षणों में सद्दाम ने अपने जल्लादों से कहा था — “तुम्हारा भी वही अंजाम होगा, कायरों।” वह अहंकार नहीं, भविष्यवाणी थी। क्योंकि आज स्वयं अमेरिका भी इराक, लीबिया, अफ़ग़ानिस्तान और अपनी ही आत्मा की छाया में
उसी अराजकता से काँप रहा है जो उसने बोई थी।
सद्दाम हुसैन संत नहीं था — वह महत्वाकांक्षा, निर्दयता और विरोधाभास का मिश्रण था। पर वह स्वतंत्रता का प्रतीक भी था — एक ऐसी दुनिया में जो आज्ञाकारिता को इनाम और स्वतंत्रता को सज़ा देती है।
पश्चिम ने कोई तानाशाह नहीं मिटाया — उसने उस आख़िरी अरब को खत्म किया जिसने “ना” कहने का साहस किया था और यही —
उसका असली अपराध था।
