अग्नि से जन्मा एक क्रांतिकारी
महाराष्ट्र के नासिक ज़िले के छोटे से गाँव भगूर में 28 मई 1883 को एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जिसने आगे चलकर ब्रिटिश साम्राज्य को बंदूकों से नहीं, बल्कि अपने विचारों से हिला दिया। उसका नाम था — विनायक दामोदर सावरकर।
तक़दीर ने इस तर्कशील युवक को एक ऐसी ज़िंदगी दी जो विडंबनाओं से भरी थी — जहाँ मिथक, विवाद, क्रांति और तर्क एक साथ चलते रहे। उनके प्रशंसकों के लिए वह ‘वीर सावरकर’ थे — निर्भीक, निडर और तेजस्वी।
उनका जीवन रानी विक्टोरिया के दौर से लेकर जवाहरलाल नेहरू के युग तक फैला रहा — एक ऐसा जीवन जिसमें एक ही व्यक्ति में पूरे शताब्दी की बेचैनी, संघर्ष, दर्शन और विवाद समा गए थे।
बचपन — जहाँ आक्रोश ने जुनून को जन्म दिया
सावरकर का बचपन शिवाजी महाराज की कहानियों के बीच गुज़रा—जहाँ तलवारें अन्याय के ख़िलाफ़ चमकती थीं। इन कथाओं ने नन्हे विनायक के भीतर विद्रोह का बीज बो दिया था। जब उनके कस्बे में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, तब सिर्फ़ 12 साल की उम्र में उन्होंने लड़कों का एक समूह बनाकर एक मस्जिद पर तोड़फोड़ कर दी। बाद में उन्होंने इसे “प्रतिशोध” कहा। यानी बचपन से ही दृढ़ता, जोश और टकराव—तीनों एक साथ थे।
जल्द ही एक के बाद एक दुख परिवार पर टूट पड़े—माता-पिता दोनों का निधन। बड़े भाई गणेश (बाबाराव) ने परिवार की ज़िम्मेदारी उठाई। उनकी संगत में विनायक का राष्ट्रवाद और कठोर हुआ। 19 वर्ष की उम्र में उन्होंने मित्र मेला नामक एक गुप्त संगठन बनाया, जो आगे चलकर अभिनव भारत बना—भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की प्रारंभिक चिंगारी।
पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में उन्होंने तिलक के उग्र विचारों को आत्मसात किया। 1905 में बंग-भंग के विरोध में स्वदेशी आंदोलन भड़का तो विनायक ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई—जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उनका पहला सार्वजनिक विद्रोह। उनकी प्रतिभा देखकर तिलक ने उन्हें लंदन में पढ़ने के लिए शिवाजी स्कॉलरशिप दिलवाई।
लंदन: निर्वासन में धधकता ज्वालामुखी
सदी की शुरुआत का लंदन—साम्राज्य का केंद्र और निर्वासित क्रांतिकारियों की शरणस्थली था। हाईगेट स्थित इंडिया हाउस में उभरती क्रांतिकारी पीढ़ी योजनाएँ बनाती थी। यहीं सावरकर की तेज़ बुद्धि और आगभरी वाणी ने उन्हें नेता बना दिया।
उन्होंने फ़्री इंडिया सोसाइटी बनाई, साथियों को हथियार चलाना सिखाया और इटली के क्रांतिकारी मज़िनी के लेखों का मराठी में अनुवाद कर दिया। 1909 में उन्होंने अपनी सबसे खतरनाक किताब लिखी— The Indian War of Independence of 1857
ब्रिटिश इसे “सिपाही विद्रोह” कहते थे, पर सावरकर ने इसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम बताया। किताब पर लगे प्रतिबंध ने इसे और ज़्यादा फैलाया—चुपचाप, पर प्रभावी।
उनके विचार ही नहीं, उनके साथी भी उग्र थे। मदनलाल धींगरा द्वारा सर कर्ज़न वाइली की हत्या और नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या—दोनों मामलों में सावरकर का नाम जुड़ा। अंततः 1910 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया—देशद्रोह, साज़िश और हत्या में सहायता, ये सारे आरोप उन पर लगाए गए।
अंडमान के कैदी: कालापानी की अंधेरी कोठरी
भारत लाते समय मार्सेईज़ (फ्रांस) बंदरगाह पर उन्होंने एक अद्भुत प्रयास किया— पोर्टहोल से कूदकर समुद्र में छलांग लगा दी और फ़्रांस की ज़मीन पर पहुँचकर शरण मांगी। कुछ ही मिनटों में दोबारा पकड़ लिए गए। यह घटना ब्रिटेन-फ्रांस के बीच राजनयिक तूफ़ान बन गई।
भारत लौटने पर फैसला वही रहा— दो जन्मों की सज़ा = 50 साल का कारावास। 4 जुलाई 1911 (अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस) को सावरकर अंडमान की सेल्युलर जेल पहुँचे—राजनीतिक कैदियों का नरक।
वर्षों तक एकांतवास, कोल्हू चलाना, नारियल कूटना, बीमारी, और निरंतर उत्पीड़न। कहा जाता है कि उन्होंने जेल की दीवारों पर टूटे नाखूनों से कविता उकेरी और अंधेरे में अपने मन को ज़िंदा रखने के लिए रचनाएँ फुसफुसाईं।
लेकिन यही अंधेरा उनकी रणनीति को बदलने लगा। 1911 से 1920 के बीच उन्होंने ब्रिटिश सरकार को कई दया याचिकाएँ (Mercy Petitions) भेजीं। उन्होंने हिंसा छोड़ने का वादा किया, वफ़ादारी जताई और “भटका हुआ पुत्र” कहकर क्षमा माँगी।
ये चिट्ठियाँ आज भी भारत की सबसे विवादित दस्तावेज़ों में गिनी जाती हैं।
कुछ लोग कहते हैं—यह उनकी रणनीति थी। दूसरे कहते हैं—यह आत्मसमर्पण था। सच्चाई शायद इन दोनों के बीच कहीं है।
1924 में उन्हें रिहा किया गया—पर शर्तों के साथ। 13 साल तक रत्नागिरी में नज़रबंदी, राजनीति पर रोक, और निरंतर निगरानी।
हिंदुत्व का विचारक
जेल ने उनका शरीर बदला, रत्नागिरी ने उनका दृष्टिकोण। यहाँ रहते हुए उन्होंने क्रांतिकारी से वैचारिक नेता बनने की यात्रा शुरू की।1923 में उन्होंने लिखा—Essentials of Hindutva. यह पतली सी पुस्तक आगे चलकर भारतीय राजनीति का एक स्तंभ बनने वाली थी।
सावरकर के अनुसार—
हिंदू वह है जिसके लिए भारत पितृभूमि भी है और पुण्यभूमि भी।
यानी जिनके धार्मिक तीर्थस्थल भारत के बाहर हैं (इस्लाम, ईसाई धर्म), वे सांस्कृतिक रूप से “हिंदू राष्ट्र” की परिभाषा में बाहरी हैं।
विडंबना यह कि इस सांस्कृतिक हिंदुत्व के निर्माता नास्तिक थे—
वे चमत्कारों और अंधविश्वास का मज़ाक उड़ाते थे, तर्क को सर्वोच्च मानते थे, जाति-विरोधी थे, लेकिन अपने सुधारों की सीमा वे स्वयं तय करते थे।
नेता, लेकिन बिना सेना वाला सेनापति
1937 में प्रतिबंध हटे, और सावरकर राजनीति में लौटे—हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने।
उनका नारा था—
“सारे हिंदुत्व को सैन्यीकृत करो और सारी राजनीति को हिंदूकरण करो।”
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब कांग्रेस “भारत छोड़ो” आंदोलन चला रही थी, सावरकर ने भारतीयों को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने की सलाह दी—तर्क था कि यही प्रशिक्षण आगे स्वतंत्र भारत के काम आएगा।
कई लोगों को यह समझौता लगा, पर सावरकर इसे रणनीति बताते रहे। 1930–40 के दशक में वे दो-राष्ट्र सिद्धांत के समर्थक बन चुके थे—कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। जिन्ना से बहुत पहले उन्होंने यह विचार प्रकट कर दिया था, हालांकि वे विभाजन के विरोधी थे।
अपने अंतिम वर्षों में उनकी लेखनी और कठोर हो गई। Six Glorious Epochs of Indian History (1963) में उन्होंने प्रतिशोध, हिंसा और यहां तक कि अत्याचार को भी “राष्ट्रहित में” न्यायोचित ठहराया। उन्होंने हिटलर के राष्ट्रवाद की तुलना भारत की स्थिति से की—जिससे उनके आलोचक और भी बढ़ गए।
गांधी की हत्या की परछाईं
30 जनवरी 1948—गांधी की हत्या। हत्यारा नाथूराम गोडसे—जो कभी सावरकर का अनुयायी रहा था। कुछ ही दिनों में सावरकर गिरफ्तार हुए—साज़िश के आरोप में। साक्ष्य अपर्याप्त रहे, अदालत ने उन्हें बरी कर दिया।
लेकिन 1969 की कपूर आयोग रिपोर्ट ने लिखा— सावरकर के कुछ निकटतम लोग हत्या की साज़िश में शामिल थे। क़ानूनी दोष सिद्ध नहीं हुआ, पर नैतिक छाया उन पर हमेशा बनी रही।
अंतिम उपवास: चुनकर अपनाई गई विदाई
1966 की सर्दियों में उन्होंने घोषणा की—
“मेरा जीवन-कार्य पूरा हो चुका है।”
उन्होंने भोजन-दवा सब छोड़ दिया—प्रयोपवेश। 26 फ़रवरी 1966 को उनका अंत हुआ। कोई राजकीय सम्मान नहीं, कोई शोक दिवस नहीं—एक मौन विदाई।
वह व्यक्ति जिसे समय भी मिटा न सका
आज, दशकों बाद, सावरकर अब भी भारतीय राजनीति और इतिहास के सबसे प्रभावशाली और विभाजनकारी नाम हैं। उनकी तस्वीर संसद में टंगी है—और उनके विचार आज भी बहस को हवा देते हैं।
कुछ लोग उन्हें militant राष्ट्रवाद का जनक मानते हैं— एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने विचार और कार्रवाई दोनों को साथ रखा।
दूसरों के लिए वह विभाजन की राजनीति के अग्रदूत हैं। पर चाहे जो भी सोचें— सावरकर को नज़रअंदाज़ करना असंभव है।
उन्होंने अपनी क्रांति को खून और शब्दों दोनों से लिखा। उनकी ज़िंदगी आज भी भारत का अधूरा प्रश्न है— हिम्मत और विरोधाभास दोनों का आईना।
डीक्लासिफाइड और गोपनीय दस्तावेज़ों में छिपा सावरकर
समय के साथ ब्रिटिश और भारतीय खुफ़िया रिकॉर्ड खुले—दया याचिकाएँ, पुलिस रिपोर्ट, सीक्रेट निगरानी फाइलें, और कपूर आयोग के बयान।
इनसे जो तस्वीर बनती है, वह जटिल, बहुपक्षीय और विरोधाभासी है— एक ऐसा व्यक्ति जिसकी राष्ट्रीयता तेज़ थी, रणनीति बदलती थी, और विवाद उसका पीछा नहीं छोड़ते थे।
दया याचिकाएँ (1911–1920): रणनीति या समर्पण?
सावरकर की दया याचिकाएँ—आज उपलब्ध अभिलेखों में सबसे संघर्षपूर्ण दस्तावेज़।
पहली याचिका (14 नवंबर 1913)
रेजिनाल्ड क्रैडॉक की जेल यात्रा के दौरान उन्होंने पहला ज्ञात आवेदन उन्हें सीधे सौंपा। उन्होंने स्वयं को “भटका पुत्र” कहा, वफ़ादारी का वचन दिया और हिंसा छोड़ने का आश्वासन दिया। यह याचिका विनम्र और क्षमाप्रार्थी थी—एक बड़ा बदलाव।
अन्य याचिकाएँ (1914–1920)
1917 और 1920 की याचिकाएँ विशेष रूप से चर्चित हैं। 1920 वाली याचिका में उन्होंने खुद को “संवैधानिक राजनीति” का समर्थक बताया और हिंसक क्रांति से दूरी बनाई। उन्होंने आम माफी (Royal Amnesty) का हवाला देते हुए रिहाई की अपील की।
ब्रिटिश अधिकारियों की राय भी दो हिस्सों में बंटी थी— कुछ उन्हें “अनुशासित और सुधरा हुआ” बताते, कुछ कहते—”रिहा हुआ तो फिर से आग भड़का देगा।”
संदर्भ और व्याख्या
रिकॉर्ड बताते हैं कि ये याचिकाएँ सावरकर ने खुद दाखिल की थीं — न कि गांधी के साथ मिलकर, जैसा कि कुछ आधुनिक व्याख्याओं में कहा जाता है। गांधी ने बस सावरकर के भाई के अनुरोध पर 1920 में यंग इंडिया में राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए एक व्यापक अपील का समर्थन किया था।
गोपनीय दस्तावेज़ यह भी साफ़ करते हैं कि अंडमान की जेलों में हालात कितने भयावह थे — एकांत कारावास, जबरन नारियल की रस्सी बनवाने का श्रम, गंदा पानी, और फैलती बीमारियाँ। इसी पृष्ठभूमि के कारण इतिहासकार आज भी बहस करते हैं कि ये याचिकाएँ जीवित रहने के लिए रणनीतिक कदम थीं या विचारधारा से समझौता।
2. ब्रिटिश गुप्त पुलिस और खुफिया निगरानी (1906–1909)
सावरकर के लंदन वाले साल (1906–1910) ब्रिटिश इंडियन पॉलिटिकल इंटेलिजेंस ऑफिस की शुरुआती अंतरराष्ट्रीय जासूसी कार्रवाइयों के केंद्र में थे। ये रिकॉर्ड लंबे समय तक गोपनीय रहे और अब ब्रिटिश लाइब्रेरी के इंडिया ऑफिस आर्काइव्स में उपलब्ध हैं।
निगरानी और घुसपैठ:
स्पेशल ब्रांच की रिपोर्टें सावरकर को “यूरोप का सबसे सक्रिय और खतरनाक भारतीय” बताती हैं। हाईगेट स्थित उनका ठिकाना इंडिया हाउस ब्रिटिश एजेंटों द्वारा अंदर से निगरानी में था, जो स्वयं को समर्थक बनकर प्रस्तुत करते थे। गोपनीय फ़ाइलें (विशेष रूप से होम डिपार्टमेंट स्पेशल फ़ाइल नंबर 60-A, 1909–1922) बताती हैं कि सावरकर अपने साथियों को हथियार चलाने, बम बनाने और गुप्त संदेश भेजने की तकनीक सिखाते थे।
एक खुफिया रिपोर्ट में दर्ज है कि उन्होंने क्रांतिकारी नेटवर्क के ज़रिए कम से कम 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें भारत भेजी थीं। इन्हीं में से एक का इस्तेमाल 1909 में नासिक के कलेक्टर ए.एम.टी. जैक्सन की हत्या में हुआ, जिससे उनका संगठन अभिनव भारत सीधे तौर पर जुड़ गया।
मार्सेई भागने की कोशिश और प्रत्यर्पण:
इन फ़ाइलों की सबसे नाटकीय घटनाओं में जुलाई 1910 की SS Morea वाली घटना है। जहाज़ के मार्सेई पहुँचते ही सावरकर बाथरूम की खिड़की से कूदकर बंदरगाह में छलांग लगा देते हैं और फ्रांसीसी क्षेत्र में पहुँच भी जाते हैं, लेकिन तुरंत ही ब्रिटिश गार्ड और एक फ्रांसीसी जँदार्म द्वारा पकड़े जाते हैं — यह अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन था।
इसके बाद जो राजनयिक विवाद हुआ, वह “द सावरकर केस” के नाम से हेग की स्थायी पंच-न्यायालय (1911) तक पहुँचा। विदेश कार्यालय के गोपनीय काग़ज़ बताते हैं कि ब्रिटेन ने अपनी गलती छिपाने के लिए झूठा दावा किया कि फ्रांस ने मदद की थी।
अंत में अदालत ने प्रक्रियागत वजहों से ब्रिटेन के पक्ष में निर्णय दिया और प्रत्यर्पण जारी रहा।
रिहाई के बाद निगरानी (1924–1937):
1937 तक, रत्नागिरि में उनके रहने पर भी उन पर खुफिया नज़र रखी जाती रही। रिपोर्टें बताती हैं कि वे क्रांतिकारी राष्ट्रवाद से एक नए वैचारिक विचार– हिंदुत्व — की ओर बढ़ रहे थे। जाति, शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर उनके कार्य की सराहना भी हुई, लेकिन ब्रिटिश अधिकारी उन्हें अब भी “संभावित रूप से ख़तरनाक” मानते थे।
3. कपूर आयोग रिपोर्ट (1969): गांधी हत्या की दोबारा समीक्षा
सावरकर की मृत्यु के दो दशक बाद भारत में एक नई जाँच ने गांधी की हत्या में उनकी भूमिका पर बहस को फिर से जगा दिया।
जस्टिस जे.एल. कपूर आयोग (1969) ने 1948 की केस फ़ाइलों की दोबारा जाँच की। 1949 में सावरकर को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया था, लेकिन आयोग की रिपोर्ट ने एक और गंभीर तस्वीर दिखायी।
महत्त्वपूर्ण गवाही:
सावरकर के बॉडीगार्ड अप्पा रामचंद्र कासार और सचिव गजानन विष्णु दामले ने गवाही दी कि जनवरी 1948 में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे ने 14 और 17 तारीख को सावरकर से मुलाकात की थी, और कथित रूप से “आशीर्वाद” माँगा था।
आयोग ने निष्कर्ष दिया—
“इन सभी तथ्यों को मिलाकर देखने पर सावरकर और उनके समूह द्वारा रची गयी साज़िश के अलावा कोई और संभावना नहीं बचती।”
कानूनी रूप से यह 1949 की बरी को पलट नहीं सकता था, लेकिन नैतिक सवालों को हमेशा के लिए खुला छोड़ गया।
राजनीतिक असर:
सरकारों ने आयोग की सिफ़ारिशों पर आगे कार्रवाई करने से बचना ही चुना। 2017 में सीआईसी ने प्रधानमंत्री कार्यालय से यह पूछने का आदेश दिया कि क्या किसी कार्रवाई की गयी, लेकिन जवाब अस्पष्ट ही रहा।
समर्थक कहते हैं कि बरी होना ही अंतिम सत्य है। आलोचक मानते हैं कि 1948 में दबाई गई गवाही बाद में सामने आने से पूरे मामले पर नई रोशनी पड़ी।
4. अतिरिक्त गोपनीय जानकारियाँ
द्वितीय विश्व युद्ध और ब्रिटिश सहयोग:
हिंदू महासभा के रिकॉर्ड और ब्रिटिश युद्धकालीन पत्राचार बताते हैं कि सावरकर ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में हिंदू युवाओं की भर्ती का समर्थन किया। उनका तर्क था—
“आज का सैन्य अनुभव कल स्वतंत्रता का हथियार बनेगा।”
इससे उनका उद्देश्य “हिंदुओं का सैन्यीकरण” था, लेकिन इससे वे गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन के विपरीत खड़े हो गए और उन्हें अवसरवादी कहा गया।
जेल में स्वास्थ्य और निजी जीवन:
अंडमान जेल के स्वास्थ्य रिकॉर्ड में सावरकर की पुरानी पेचिश, कुपोषण और थकावट का उल्लेख मिलता है। उनके भाई बाबाराव की कैद और उनकी बीमारी के रिकॉर्ड भी बताते हैं कि यह पूरा परिवार ब्रिटिश निगरानी में था।
स्वतंत्र भारत में भी निगरानी:
1950 के दशक की गोपनीय गृह मंत्रालय फ़ाइलें बताती हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार भी संवेदनशील समय—गांधी हत्या मुकदमे और 1966 के उनके आमरण अनशन—के दौरान उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखती थी।
निष्कर्ष
वीर सावरकर से जुड़े ये गोपनीय दस्तावेज़ दिखाते हैं कि वे न तो पूरी तरह देवतुल्य थे, न पूरी तरह दोषी। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो क्रांति से रणनीति की ओर, जेल से विचारधारा की ओर, और विवाद से इतिहास की ओर बढ़ते गए।
दया याचिकाओं में दिखने वाली विनम्रता और खुफिया फ़ाइलों में दर्ज उनके विद्रोह दोनों ही सावरकर के जटिल व्यक्तित्व का हिस्सा हैं।
इतिहासकार बहस करते रहेंगे—लेकिन अब सार्वजनिक हो चुके ये दस्तावेज़ बताते हैं कि सावरकर वही थे: एक ऐसा विद्रोही जिसने सौदे भी किए, एक नास्तिक जिसने सांस्कृतिक देवताओं को पुकारा और एक ऐसा राष्ट्रवादी जिसकी विरासत आज भी देश को दो हिस्सों में बाँट देती है।
वीर सावरकर: पक्ष और विपक्ष
विनायक दामोदर सावरकर — जिन्हें समर्थक “वीर सावरकर” कहते हैं और आलोचक विवादों का केंद्र — आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे जटिल और बहस-योग्य व्यक्तित्वों में से हैं।
कई लोगों के लिए वे दूरदर्शी क्रांतिकारी थे; दूसरों के लिए वे सांप्रदायिक विचारों के जन्मदाता और औपनिवेशिक सत्ता के साथ समझौता करने वाले नेता।
उनका जीवन किसी एक छवि में नहीं बाँधा जा सकता — यह क्रांति, जेल, विचारधारा और विवाद, इन सबका मिश्रण था।
सावरकर के पक्ष में तर्क
1. क्रांतिकारी देशभक्ति और त्याग
समर्थकों के अनुसार सावरकर स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे शुरुआती और निडर क्रांतिकारियों में थे। उन्होंने अभिनव भारत नामक गुप्त संगठन की स्थापना की, और अपनी पुस्तक 1857 का स्वतंत्रता संग्राम के ज़रिए “सिपाही विद्रोह” को राष्ट्रीय क्रांति के रूप में पेश किया, जो कई क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बनी।
लंदन में वे इंडिया हाउस के केंद्र बन गए, जहाँ हथियारों का प्रशिक्षण, गोपनीय संदेश भेजने की तकनीक और क्रांतिकारी गतिविधियों की योजना बनाई जाती थी। इन्हीं गतिविधियों के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया और उन्हें अंडमान की कालापानी जेल में दो आजीवन कारावास की सजा मिली।
समर्थक यह भी कहते हैं कि उनकी चर्चित दया याचिकाएँ समर्पण नहीं बल्कि रणनीति थीं — एक ऐसा तरीका जिससे वे जेल से बाहर निकलकर स्वतंत्रता आंदोलन को फिर आगे बढ़ा सकें।
गांधी ने भी यंग इंडिया में उन्हें “भारत का साहसी, बुद्धिमान और देशभक्त पुत्र” कहा था।
2. वैचारिक और सामाजिक सुधार
सिर्फ राजनीतिक आंदोलनकारी ही नहीं, सावरकर एक तर्कवादी और सामाजिक सुधारक भी थे। वे स्वयं को नास्तिक कहते थे और हिंदू समाज में अंध-विश्वास, रूढ़िवाद और बेकार रस्मों की खुले तौर पर आलोचना करते थे।
अपने निबंध “हिंदू समाज की सात बेड़ियाँ” (1931) में उन्होंने जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता, और जाति-आधारित खाने-पीने व विवाह की पाबंदियों की कड़ी आलोचना की। रत्नागिरी में नजरबंदी के दौरान उन्होंने दबे-कुचले वर्गों को मंदिर प्रवेश दिलाने की मुहिम चलाई और डॉ. भीमराव आंबेडकर के सामाजिक सुधार प्रयासों का समर्थन किया। हालाँकि उनके सुधार हिंदू समाज की सीमाओं के भीतर थे, लेकिन अपने समय के हिसाब से प्रगतिशील माने जाते थे।
समर्थक सावरकर की हिंदुत्व (1923) की अवधारणा का बचाव करते हुए कहते हैं कि यह धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सभ्यतागत पहचान का विचार था। उनकी दृष्टि में हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख — सभी एक साझा पूर्वजों और भारतभूमि को पिता और पवित्र भूमि मानने वाली पहचान से जुड़े हुए थे।
समर्थकों के अनुसार यह विचार किसी को बाहर करने के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एकजुटता, आत्म-सम्मान और आत्म-रक्षा की भावना जगाने के लिए था।
3. रणनीतिक राष्ट्रवाद और व्यावहारिक राजनीति
सावरकर के समर्थक उन्हें एक व्यावहारिक और रणनीतिक राष्ट्रवादी मानते हैं, जो समझते थे कि भारत की स्वतंत्रता सिर्फ विचारों से नहीं, बल्कि सैन्य शक्ति से भी आएगी।
हिंदू महासभा के अध्यक्ष (1937–1943) रहते उन्होंने आह्वान किया—
“राजनीति का हिंदूकरण करो और हिंदुत्व का सैन्यीकरण करो।”
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने भारतीयों को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। कांग्रेस ने इस रुख की आलोचना की, लेकिन समर्थकों का कहना है कि सावरकर इसे आने वाले स्वतंत्र भारत के लिए सैन्य प्रशिक्षण का अवसर मानते थे — एक व्यावहारिक दृष्टिकोण, जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता बाद की तैयारियों से जुड़ा था। यह सोच सुभाष चंद्र बोस के सैन्य दृष्टिकोण से मिलती-जुलती है, बस तरीका अलग था।
वे भारत से परे भी सोचते थे। उन्होंने यहूदियों के फ़िलिस्तीन में पुनर्वास का समर्थन किया और यहूदी राष्ट्रवाद (ज़ायनिज़्म) को हिंदू राष्ट्रवाद की तरह “पूर्वजों की भूमि की पुनर्प्राप्ति का संघर्ष” बताया। इस तरह उनका दृष्टिकोण एक शुरुआती वैश्विक राष्ट्रवादी के रूप में दिखता है — जहाँ विचारधारा और व्यावहारिक कूटनीति दोनों मौजूद हैं।
4. विरासत और समकालीन पुनर्मूल्यांकन
सावरकर के प्रशंसकों का मानना है कि आधुनिक आलोचना अक्सर वैचारिक पूर्वाग्रह से प्रेरित होती है। उनके अनुसार गांधी हत्या मामले में सावरकर का 1949 का बरी होना कानूनी रूप से अंतिम सत्य है, और 1969 की कपूर आयोग रिपोर्ट को अभियोजन का अधिकार नहीं था।
हाल के वर्षों में फिल्मों, जीवनी पुस्तकों और डॉक्यूमेंट्रीज़ ने सावरकर को “अनकहा नायक” के रूप में प्रस्तुत किया है। समर्थक उन्हें राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण, बौद्धिक साहस और अनदेखे बलिदान का प्रतीक मानते हैं — और उनकी आत्मनिर्भर राष्ट्रवाद की सोच को आज भी प्रेरणादायक बताते हैं।
वीर सावरकर के विरुद्ध तर्क
1. दया याचिकाएँ और ब्रिटिश सहयोग के आरोप
आलोचक सावरकर की 1911–1920 के बीच भेजी गई दया याचिकाओं पर जोर देते हैं, जिनमें उन्होंने अपने कार्यों पर पछतावा जताया और ब्रिटिश सत्ता के प्रति निष्ठा की पेशकश की। उनके अनुसार ये याचिकाएँ रणनीति नहीं बल्कि राजनीतिक झुकाव और आत्मसमर्पण का संकेत थीं।
1924 में रिहाई के बाद सावरकर ने क्रांतिकारी गतिविधियाँ त्याग दीं, ब्रिटिशों के प्रति टकराव से बचे रहे और WWII में उन्हें सहयोग भी दिया। आलोचक कहते हैं कि ब्रिटिश सेना में भर्ती का उनका आह्वान वास्तविक सहयोग था, खासकर जब उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया।
कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि सावरकर ने विदेश में आज़ाद हिंद फ़ौज खड़ी कर रहे सुभाष चंद्र बोस का नैतिक नुकसान किया।
2. सांप्रदायिक और बहिष्कारी विचारधारा
अपनी पुस्तक Essentials of Hindutva (1923) में सावरकर ने कहा कि वे लोग ही राष्ट्र के “सच्चे सदस्य” हैं जिनकी पितृभूमि और पवित्र भूमि — दोनों भारत हैं। इस परिभाषा से मुसलमान और ईसाई अपने धार्मिक केंद्र विदेश में होने के कारण स्वतः अलग हो जाते थे।
आलोचकों का कहना है कि इस विचार ने धार्मिक राष्ट्रवाद और “दो राष्ट्र सिद्धांत” के बीज बोए, जो बाद में जिन्ना द्वारा इस्तेमाल किए गए।
सावरकर के बाद के भाषणों में मुसलमानों को “आंतरिक खतरा” बताए जाने का आरोप भी लगाया जाता है।
उनकी 1938 की वह टिप्पणी जिसमें उन्होंने हिटलर द्वारा यहूदियों पर किए अत्याचार को “राष्ट्र गौरव की बहाली” से जोड़ा था, और उनकी पुस्तक Six Glorious Epochs of Indian History (1963) में युद्ध में यौन हिंसा को रणनीति बताने वाले अंश —
इन पर गंभीर नैतिक आलोचना की जाती है। विद्वान इन्हें उनके तर्कवाद से कटकर फासीवादी झुकाव की ओर बढ़ने का प्रमाण मानते हैं।
3. गांधी हत्या में कथित भूमिका
सावरकर के जीवन का सबसे विवादित पहलू गांधी की हत्या में उनकी कथित संलिप्तता है। हालाँकि 1949 में उन्हें सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया था, लेकिन 1969 के कपूर आयोग ने नए और दबे हुए साक्ष्यों की समीक्षा कर एक गहरा संदेह जताया।
उनके बॉडीगार्ड अप्पा कासार और सचिव जी.वी. दामले ने गवाही दी कि नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे हत्या से कुछ पहले सावरकर से मिलने आए थे और “आशीर्वाद” लिया था। कानूनी रूप से यह निर्णायक नहीं था, लेकिन नैतिक रूप से आज भी यह सवाल कायम है।
4. राजनीतिक रुख और व्यापक आलोचना
सावरकर का द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिशों का समर्थन, गांधी के आंदोलनों का विरोध, और भारतीय संविधान के प्रति उनकी कठोर आलोचना आज भी आलोचकों के लिए बड़ी वजह हैं। वे संविधान को “अन-इंडियन” और लोकतंत्र को “पाश्चात्य आयात” कहते थे।
वामपंथी इतिहासकार उन्हें “ब्रिटिश का सहयोगी” और “क्रांति से मुंह मोड़ने वाला नेता” बताते हैं। उनका हिंदू महासभा और RSS के वैचारिक ढांचे के नज़दीक होना भी उन्हें सांप्रदायिक राजनीति के जनक जैसा रूप देता है।
संसद में उनके चित्र पर विवाद, सोशल मीडिया बहसें और सार्वजनिक विमर्श यह दिखाते हैं कि सावरकर का नाम आज भी भारत की नैतिक और राजनीतिक कल्पना को बांट देता है।
निष्कर्ष: विरासत की दोहरी छवि
वीर सावरकर का जीवन बहादुरी और विवाद, दृष्टि और विरोधाभास — इन सबका संगम है। उनकी शुरुआती क्रांतिकारी भूमिका और बौद्धिक योगदान को विरोधी भी सम्मान देते हैं। लेकिन उनके बाद के राजनीतिक निर्णय और कठोर वैचारिक रुख ने उन्हें आलोचना का केंद्र भी बनाया।
समर्थकों के लिए वे एक दूरदर्शी रणनीतिकार और आधुनिकतावादी हैं, आलोचकों के लिए वे विभाजनकारी विचारों के जनक। इन दोनों छवियों के बीच खड़ा है एक ऐसा व्यक्ति — जिसमें विद्रोह की ज्वाला भी थी और विचारधारा की कठोर सीमा भी। सावरकर की सच्चाई, ठीक भारत की तरह, एक-रेखीय नहीं — बहुस्तरीय है।
