जब जेल में मां को सामने देखकर बिस्मिल की आंखें डबडबा आईं और और सुननी पड़ी उलाहना...

जब जेल में मां को सामने देखकर बिस्मिल की आंखें डबडबा आईं और सुननी पड़ी उलाहना…

हंसते हुए फांसी का फंदा चूमने वाले अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल को याद करते समय कहीं उस मां मूलमती को न भूल जाएं , जिसने उस वीर को जन्म दिया. वह बहादुर मां जो फांसी के एक दिन पहले बेटे से आखिरी मुलाकात में भी चट्टान बनी हुई थीं. बेटा भावुक हुआ तो मां ने उसकी बहादुरी को चुनौती दे दी थी.

बिस्मिल और उनकी मां मूलमती की भेंट का रोमांचकारी विवरण सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा ने “चांद” के फांसी अंक में दिया है. उन्होंने ने फांसी के एक दिन पहले छोटा भाई बनकर बिस्मिल से भेंट की और छिपाये हथियारों की जानकारी ली थी.

बिस्मिल की मां भी उसी दिन मिलीं. मां-बेटे के बीच उस वक्त का संवाद बहादुर मां के प्रति किसी को भी नतमस्तक कर देगा. क्रांतिकारी शिव वर्मा ने लिखा,”उस दिन मां को देखकर उस भक्त पुजारी (बिस्मिल) की आंखों में आंसू आ गये. मां ने कहा- मैं तो समझती थी कि तुमने अपने ऊपर विजय पायी है, किन्तु यहां तो तुम्हारी दशा कुछ और है. जीवन भर देश के लिए आंसू बहाकर अब तुम मेरे लिए रोने बैठे हो.

इस कायरता से क्या होगा? तुम्हे वीर की भांति हंसते हुए प्राण देते हुए देखकर मैं अपने को धन्य मानूंगी. मुझे गर्व है कि इस गए-बीते जमाने में मेरा पुत्र देश की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर रहा है. मेरा काम तुम्हे पाल कर बड़ा बनाना था. तुम देश की चीज थे. देश के काम आ गये. मुझे इसका तनिक भी दुःख नही है.”

…और तब बिस्मिल ने मां से कहा था,” मां तुम तो मेरे ह्रदय को भली-भांति जानती हो. क्या तुम समझती हो कि मैं तुम्हारे लिए रो रहा हूं यज्ञ इसलिए कि कल मुझे फांसी हो जाएगी. यदि ऐसा है तो मैं कहूंगा कि तुम जननी होकर भी मुझे नहीं समझ सकीं. मुझे अपनी मृत्यु का तनिक भी दुख नही है. हां! अगर घी, आग के पास लाया जाए तो उसका पिघलना स्वाभाविक है. बस उसी प्राकृतिक सम्बन्ध से दो-चार आंसू आ गए. तुम्हे विश्वास दिलाता हूं कि मुझे मृत्यु की तनिक भी चिंता नही है.”

30 साल के जीवन में 11 किताबें लिखीं

बिस्मिल बहुत अच्छे साहित्यकार थे. वो बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. उनमें संवेदनशील कवि, शायर, साहित्यकार और इतिहासकार के साथ एक अच्छा अनुवादक भी था. लेखन के लिए बिस्मिल ने अपना अलग उपनाम रखा था और कविता करने के लिए अलग. ये दोनों उपनाम ‘राम’ और ‘अज्ञात’ थे.

आप ये जानकर हैरान होंगे कि उन्होंने अपने 30 साल के जीवनकाल में 11 किताबें लिख डाली थीं. जो प्रकाशित हुईं लेकिन सारी की सारी अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गईं. वैसे वो देश क्या दुनिया के अकेले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने किताबें लिखीं, उससे धन अर्जित किया और फिर उससे अपनी क्रांति के लिए जरूरी हथियार खरीदे.

परमानंद को फांसी की सजा ने क्रांतिकारी बना दिया

बिस्मिल’ के क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत 1913 में अपने समय के आर्य समाज और वैदिक धर्म के प्रमुख प्रचारकों में एक भाई परमानंद की गिरफ्तारी और फांसी की सजा के बाद हुई.उन्होंने परमानंद की फांसी पर कविता लिखी, ‘मेरा जन्म’. लेकिन इस कविता को लिखने के साथ ही उन्होंने तय कर लिया कि अब उनका एक ही धर्म है और वो है भारत माता को आजाद कराना. वो क्रांतिकारी बनने का फैसला कर चुके थे.

हालांकि बाद में तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ने भाई परमानंद की फांसी की सजा काले पानी में बदल दी. उन्हें अंडमान सेलुलर जेल भेज दिया गया बाद में सीएफ एन्ड्रूज के हस्तक्षेप से उन्हें जेल से रिहा किया गया. हालांकि तब तक बिस्मिल पूरी तरह क्रांतिकारी बन चुके थे और उनके रास्ते पूरी तरह अलग हो चुके थे.

वो जहां तैर कर पहुंचे थे वो जगह अब ग्रेटर नोएडा है

‘बिस्मिल’ ने ‘देशवासियों के नाम संदेश’ नाम का एक पम्फलेट प्रकाशित किया. लेकिन बाद में अंग्रेजों की धरपकड़ के कारण उन्हें भूमिगत होना पड़ा. हालांकि फिर एक कार्यक्रम में जब वो गए तो वहां पुलिस का छापा पड़ा और उन्हें यमुना में कूदकर भागना पड़ा. यमुना में डूबते-उतराते वो जिस जगह पहुंचे, वहां बीहड़ों व बबूलों के अलावा कुछ भी दिखायी नहीं देता था. ये वही जगह है जहां अब ग्रेटर नोएडा बस गया है.

कांग्रेस से मोहभंग हो गया

इसके बाद उन्होंने फिर रामपुर जागीर नाम के एक छोटे से गांव में शरण ली थी. यहां वो फिर किताब लिखने में जुट गए. उन्हें भगोड़ा घोषित करके सजा सुनाई जा चुकी थी. बिस्मिल भी पकड़ में आए. सजा हुई. फरवरी, 1920 में रिहा होने के बाद वो शाहजहांपुर वापस लौटे. कांग्रेस के 1920 में कलकत्ता और 1921 में अहमदाबाद अधिवेशन में हिस्सा लिया.हालांकि उनका बाद में कांग्रेस से मोहभंग हो गया.

काकोरी में ट्रेन में जा रहा खजाना लूटा

इसके बाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ मिलकर गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर शुरू किया. इसी के तहत 09 अगस्त, 1925 को अपने साथियों के साथ उन्होंने एक आपरेशन में काकोरी में ट्रेन से ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को लूटा. 26 सितंबर, 1925 को वो पकड़ लिए गए. बाद में 19 दिसंबर 1927 को उन्हें फांसी दे दी गई.

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