भारतीय इतिहास के विशाल गलियारों में कुछ राजा ऐसे भी हैं जिनकी गूंज कभी सिंह की दहाड़ जैसी सुनाई दी, लेकिन समय के साथ वह आवाज़ इतिहास के पन्नों में खो गई।
इन्हीं में से एक नाम है ललितादित्य मुक्तापीड़ — कर्कोट वंश का वह राजा (724–760 ईस्वी के बीच) जिसने अपनी शक्ति, दूरदर्शिता और सांस्कृतिक समृद्धि से कश्मीर को उस समय की सबसे चमकती सभ्यताओं में बदल दिया।
इतिहासकारों के लिए वह अब भी एक रहस्य हैं — कुछ के लिए विजेता, कुछ के लिए दार्शनिक, तो कुछ के लिए किंवदंती।
परंतु जिन्होंने राजतरंगिणी के पन्ने पढ़े या मार्तंड मंदिर के पत्थरों को समझा, वे जानते हैं कि ललितादित्य का शासन कश्मीर का स्वर्ण युग था — जब यह घाटी केवल एक प्रदेश नहीं, बल्कि एक जीवंत सभ्यता थी, जहाँ से एशिया की कई संस्कृतियाँ जुड़ती थीं।
पहाड़ों का राजकुमार
लगभग 699 ईस्वी के आसपास जन्मे ललितादित्य, राजा दुर्लभक (प्रतापादित्य द्वितीय) और रानी नरेंद्रप्रभा के सबसे छोटे पुत्र थे। उनका वंश पौराणिक नागराज कर्कोटक से जुड़ा माना जाता था — जिससे उनके शासन को धार्मिक आशीर्वाद और राजनीतिक वैधता दोनों मिलते थे।
उनकी माता का पहला विवाह एक विदेशी व्यापारी से हुआ था, जिससे ललितादित्य के भीतर बचपन से ही एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित हुआ — जो आगे चलकर उनके साम्राज्य के बहु-सांस्कृतिक स्वरूप में झलका।
उस समय चारों ओर उथल-पुथल थी — सिंध में अरबों का आक्रमण (711 ईस्वी), उत्तर में तिब्बतियों का विस्तार, और भारत के मैदानों में विभिन्न राजवंशों की आपसी स्पर्धा। ऐसे माहौल में पले-बढ़े ललितादित्य ने राजनीति और कूटनीति दोनों के सबक बचपन में ही सीख लिए।
वे आस्था से हिंदू थे, लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म को भी समान सम्मान दिया। उनकी दो रानियाँ — कमलादेवी और चक्रमर्दिका, तथा पुत्र कुवलयापीड़ और वज्रादित्य द्वितीय ने आगे चलकर कर्कोट वंश की परंपरा को आगे बढ़ाया।
सिंहासन और बदलाव की शुरुआत
लगभग बीस वर्ष की उम्र में, अपने भाई तारापीड़ की मृत्यु के बाद (724–725 ईस्वी के आसपास), ललितादित्य कश्मीर के सिंहासन पर बैठे। अगले छत्तीस वर्षों तक उन्होंने न केवल युद्धों में विजय पाई, बल्कि एक नये युग की नींव रखी।
राज्य के भीतर विद्रोह और बाहर से लगातार खतरे थे — पश्चिम से अरब, उत्तर से तिब्बती, और दक्षिण से भारतीय राजाओं की महत्वाकांक्षाएँ। परंतु ललितादित्य ने हर संकट को अवसर में बदला।
733 ईस्वी में उन्होंने चीन के तांग वंश से मैत्री संबंध स्थापित किए और तिब्बत के विरुद्ध सहयोग का वचन दिया। चीन के सम्राट श्युंज़ोंग ने उन्हें क्षेत्रीय सहयोगी माना। 749 ईस्वी में यह गठबंधन और मजबूत हुआ — जिससे कश्मीर को केन्द्रीय एशिया के व्यापार मार्गों तक पहुँच मिली और तांग सैनिकों व तोख़ार भाड़े के सैनिकों का सहयोग भी। कूटनीति और युद्ध की इस संयुक्त रणनीति ने कश्मीर को एक पहाड़ी राज्य से महाशक्ति में बदल दिया।
सीमाओं से परे विजय
राजतरंगिणी के लेखक कल्हण ने ललितादित्य को “सार्वभौम सम्राट” कहा — एक चक्रवर्ती, जिसने चारों दिशाओं में विजय यात्रा (दिग्विजय) की। यद्यपि सभी युद्धों के विवरण इतिहासकारों में विवादित हैं, परंतु यह निर्विवाद है कि उन्होंने कश्मीर की सीमाओं का अभूतपूर्व विस्तार किया।
उत्तरी सीमाएँ और तिब्बत से संघर्ष
लगभग चौदह वर्षों तक (733–747 ईस्वी) ललितादित्य ने तिब्बतियों और उनके सहयोगियों से संघर्ष किया। चीन की सहायता से उन्होंने गिलगित, बाल्तिस्तान और पामीर तक विजय प्राप्त की। उन्होंने दारद, कंबोज और तोख़ार प्रदेशों (आज का अफगानिस्तान और ताजिकिस्तान) पर भी अधिकार किया — और संभवतः काशगर व कूचा तक पहुँचे।
चीनी अभिलेखों में उन्हें “मु-तो-पी” कहा गया है, और उनकी प्रशंसा तिब्बत-विरोधी अभियानों में सहयोगी के रूप में की गई है। उनका प्रभाव रेशम मार्ग के कई हिस्सों तक फैला था — जिससे भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापार और संस्कृति दोनों का आदान-प्रदान हुआ।
अरब और तुर्कों से संघर्ष
जब उमय्यद अरब सिंध और पंजाब तक पहुँच गए थे, तब ललितादित्य की सेनाओं ने उन्हें तीन बार पराजित किया। अल-बिरूनी ने अपने ग्रंथों में लिखा है कि कश्मीर में उस विजय की स्मृति में एक उत्सव मनाया जाता था — जो तुर्कों पर जीत का प्रतीक था। यद्यपि कई इतिहासकार इन युद्धों को रक्षात्मक मानते हैं, लेकिन इनसे कश्मीर की स्वतंत्रता उस समय सुरक्षित रही जब पूरा उत्तर-पश्चिम एशिया अरब शासन के अधीन जा रहा था।
पूर्व और दक्षिण की दिशा में अभियान
पूर्व में ललितादित्य ने कन्नौज के प्रसिद्ध राजा यशोवर्मन को पराजित किया। कवि वाक्पति, जो पहले यशोवर्मन के दरबार में थे, ने अपनी कृति गौड़वहो में इस संघर्ष का वर्णन किया है — जब कन्नौज ने लगभग 733 ईस्वी में ललितादित्य के सामने आत्मसमर्पण किया।
इसके बाद उनकी सेनाएँ गौड़ (बंगाल), कलिंग (ओड़िशा), और संभवतः कोंकण तथा कर्नाटक तक पहुँचीं। उन्होंने वहाँ प्रशासनिक केन्द्र और स्थानीय गठबंधन बनाए।
विद्वानों के बीच मतभेद हैं — कुछ (जैसे हर्मन गोट्ज़ और आंद्रे विंक) इन अभियानों को ऐतिहासिक रूप से संभव मानते हैं, जबकि अन्य (जैसे एम.ए. स्टीन और रोनाल्ड डेविडसन) इन्हें कश्मीरी गौरव की अतिशयोक्ति कहते हैं। परंतु सच चाहे जो हो, इन वर्णनों से यह स्पष्ट होता है कि उस समय कश्मीर स्वयं को भारत के किनारे पर नहीं, बल्कि भारत के केंद्र में देखता था।
सभ्यता का निर्माता
युद्धों ने उसकी सीमाएँ बढ़ाईं, पर उसकी आत्मा उसकी रचनात्मकता में बसती थी। ललितादित्य के शासन में कश्मीर ने नगर निर्माण, मंदिरों, जलप्रणालियों और व्यापारिक केन्द्रों के रूप में एक नयी पहचान पाई।
नगर और संरचना
उन्होंने अपनी राजधानी परीहासपुर बसाई (आज के श्रीनगर के पास), और उसके साथ सुनिश्चितपुरा, फलपुरा, दर्पितपुरा, लोकपुण्य और चक्रपुरा जैसे नगर स्थापित किए। ये केवल सैन्य छावनियाँ नहीं थे, बल्कि धर्म, व्यापार और संस्कृति के केन्द्र थे। जलचक्कियाँ, नहरें और बाँध — जैसे रानी चन्द्रादेवी द्वारा बनाया गया बाँध — उनके शासन की तकनीकी दक्षता का प्रमाण हैं।
मार्तंड सूर्य मंदिर
ललितादित्य की सबसे महान धरोहर है मार्तंड सूर्य मंदिर (अनंतनाग में)। यह मंदिर चूना पत्थर से बना है और घाटी की ऊँचाई पर स्थित है — जहाँ से पूरा कश्मीर दिखता है। इसकी बनावट में गांधार, गुप्त और यूनानी शैलियों का अद्भुत मेल है। यह मंदिर केवल आस्था का प्रतीक नहीं था, बल्कि प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक था — वैसा ही जैसे ललितादित्य स्वयं थे।
मंदिर और विहार
ललितादित्य ने हिंदू और बौद्ध दोनों ही संस्थानों को संरक्षण दिया। उन्होंने विष्णु के लिए परिहासपुर और ललितपुर में मंदिर बनवाए, और बौद्ध विहार जैसे चंकुन विहार और राजविहार भी स्थापित किए। उन्होंने विष्णु की महावराह और गोवर्धन-धारक रूपों की प्रतिमाएँ बनवाईं, साथ ही बृहत बुद्ध की एक विशाल ताम्र प्रतिमा भी, जो बामियान बुद्ध की याद दिलाती है।
कश्मीर की कला में यह धार्मिक समरसता उसकी पहचान बन गई — जो आगे चलकर उसकी चित्रकला और लकड़ी की वास्तुकला में भी झलकी।
किंवदंती और दिव्यता की कथा
कल्हण की राजतरंगिणी में ललितादित्य को लगभग देवता तुल्य रूप में चित्रित किया गया है। वह नदियों को अपने भाले से मोड़ देते हैं, देवताओं को युद्ध के लिए बुलाते हैं और दूर-दूर के देशों पर अधिकार करते हैं। भले ही ये घटनाएँ इतिहास की दृष्टि से असंभव लगें, लेकिन यह दिखाती हैं कि उनके युग में राजा और देवत्व के बीच की रेखा कितनी धुंधली थी।
चार सौ वर्ष बाद अल-बिरूनी ने भले ही उनके “विश्व विजय” के दावे को नकारा, पर उसने यह भी स्वीकार किया कि उस समय का कश्मीर अतुलनीय समृद्धि का प्रतीक था। जनमानस में ललितादित्य एक राजा नहीं, बल्कि ईश्वरीय कृपा के प्रतीक बन गए।
अंतिम यात्रा और मौन विदाई
जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें एक बेचैनी घेरने लगी। संपत्ति, यश और साम्राज्य — सब कुछ होते हुए भी वे किसी गहरी तलाश में निकल पड़े। राजतरंगिणी के अनुसार, वे एक बार फिर उत्तर की दिशा में निकले — शायद नये प्रदेशों की खोज में, या शायद आत्मशांति की तलाश में। वह कभी लौटे नहीं।
कुछ मानते हैं कि वे हिमालय की बर्फ़ीली आँधी में मारे गए; कुछ कहते हैं कि उन्होंने ध्यान में लीन होकर स्वयं अग्नि में विलय कर लिया।
उनके पुत्र कुवलयापीड़ ने सिंहासन संभाला, पर वह विशाल साम्राज्य जल्द ही बिखर गया — क्योंकि कभी-कभी इतिहास का संपूर्ण वैभव एक असाधारण व्यक्ति के साथ ही विदा हो जाता है।
विरासत: वह सूर्य जो समय से पहले ढल गया
ललितादित्य मुक्तापीड़ भारत के उन विस्मृत लेकिन अद्वितीय सम्राटों में से एक हैं — एक विजेता, जिसने सभ्यता को आक्रमणों से बचाया;
एक निर्माता, जिसने धरती का रूप बदला और एक संरक्षक, जिसने कला और सहिष्णुता दोनों को नया जीवन दिया।
उन्होंने कश्मीर को संस्कृत विद्वानों, बौद्ध भिक्षुओं, फ़ारसी व्यापारियों और चीनी दूतों का मिलन-स्थल बना दिया। उनके शासनकाल में कश्मीर ने सिंधु से ऑक्सस (अमू दरिया) और गंगा से हिमालय तक एक सांस्कृतिक सेतु का रूप लिया — जहाँ भारत का आध्यात्मिक प्रकाश एशिया के दूरस्थ कोनों तक फैल गया।
फिर भी, आज के इतिहास-पुस्तकों में उनका नाम अक्सर एक फुटनोट बनकर रह गया है। आगे हुए आक्रमणों ने उनके साम्राज्य के निशान मिटा दिए और आधुनिक इतिहास-लेखन, किंवदंतियों से बचने की कोशिश में, कई बार उनकी वास्तविक उपलब्धियों को भी अनदेखा कर देता है।
लेकिन आज भी मार्तंड मंदिर के पत्थर, जो घाटी की धूप में चमकते हैं, फुसफुसाते हैं — ललितादित्य, सूर्य सम्राट, जिसने कश्मीर की पहाड़ियों से एक प्रकाशमय, एकजुट दुनिया का सपना देखने का साहस किया।
संपादकीय दृष्टि
ललितादित्य की कथा केवल इतिहास नहीं है — यह नेतृत्व के उस रूप की शिक्षा है, जिसे हमने भुला दिया है। उनके व्यक्तित्व में हमें एक ऐसा भारत दिखाई देता है, जो खुला हुआ, सीखने वाला, और सीमाओं के पार सोचने वाला था। उनकी शक्ति का स्वरूप एकांत या असहिष्णु नहीं था, बल्कि समावेशी, दूरदर्शी और उदार था।
आज जब आधुनिक भारत अपनी परंपरा और राष्ट्रवाद की परिभाषा पर विचार कर रहा है, तो शायद समय आ गया है उस सम्राट को याद करने का, जिसने तेरह शताब्दियाँ पहले यह साबित कर दिया था — कि कश्मीर का प्रकाश आधे विश्व को आलोकित कर सकता है।
ललितादित्य मुक्तापीड़ के कम ज्ञात तथ्य और कथाएँ
कर्कोट वंश के महान सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ (724–760 ईस्वी) का नाम राजतरंगिणी से लेकर तांग वंश के अभिलेखों और अल-बिरूनी के लेखों तक दर्ज है। विजयों और सांस्कृतिक उत्कर्ष की परिचित कथा के पीछे कई कम जानी-बुझी कहानियाँ हैं —
राजनय, किंवदंती और राजनीति के ऐसे टुकड़े, जो इस राजा के मानवीय और दूरदर्शी रूप को और गहराई से उजागर करते हैं।
ये बिखरे हुए प्रसंग उस व्यक्ति की एक निकट और मानवीय झलक देते हैं, जिसने कभी कश्मीर को सचमुच एशिया का हृदय बना दिया था।
1. यशोवर्मन के साथ अस्वीकार किया गया संधि-प्रस्ताव और सूर्यग्रहण की पराजय
राजतरंगिणी में कल्हण एक संक्षिप्त प्रसंग लिखते हैं — जब ललितादित्य और कन्नौज के शक्तिशाली राजा यशोवर्मन के बीच एक संधि प्रस्तावित हुई। ललितादित्य के मंत्री मित्रशर्मन ने उस संधि का विरोध किया क्योंकि दस्तावेज़ में शीर्षक लिखा था — “यशोवर्मन और ललितादित्य की संधि।” मंत्री का मत था कि राजा का नाम पहले आना चाहिए। यह सम्मान का प्रश्न बन गया और युद्ध फिर से आरंभ हुआ।
अंततः ललितादित्य विजयी हुए। कवि भवभूति की गौड़वहो में इस घटना का उल्लेख एक प्रतीकात्मक रूप में मिलता है — जहाँ यशोवर्मन की हार के समय सूर्यग्रहण का वर्णन है।
आधुनिक इतिहासकार इसे अगस्त 733 ईस्वी का समय मानते हैं, और यह मान्यता खगोलीय प्रमाणों से भी मेल खाती है — एक सूक्ष्म लेकिन चौंकाने वाला विवरण, जो आम इतिहासों में शायद ही मिलता है।
2. प्रशासनिक सुधार और पाँच नये पद
युद्धों और निर्माण कार्यों के अतिरिक्त, ललितादित्य एक उत्कृष्ट प्रशासक भी थे। कन्नौज विजय के बाद उन्होंने राज्य-प्रशासन में सुधार करते हुए, पहले से विद्यमान अठारह विभागों के साथ पाँच नये पद जोड़े —
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उच्च दरबार प्रमुख
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विदेश मामलों के मंत्री
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अश्वाध्यक्ष (सेना के घोड़ों के प्रमुख)
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कोषाध्यक्ष
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महासाधनभाग — जो आज के “मुख्य कार्यकारी अधिकारी” जैसा पद था।
यह सुधार एक विस्तृत साम्राज्य के प्रशासन की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ था और इसमें सासानी तथा चीनी शासन प्रणालियों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। इससे ललितादित्य का वह पक्ष सामने आता है जिसे इतिहास प्रायः अनदेखा करता है — एक संगठित राज्य निर्माता, केवल एक योद्धा नहीं।
3. ‘स्त्री-राज्य’ की किंवदंती
राजतरंगिणी की सबसे रहस्यमय कथाओं में से एक है — ललितादित्य का अभियान “स्त्री-राज्य (Strī-Rājya)” के विरुद्ध। यह एक समृद्ध घाटी थी, संभवतः बाल्तिस्तान का शिगर क्षेत्र, जो अपने सुनहरी धूल और स्वर्ण खनन के लिए प्रसिद्ध था। इस प्रदेश पर रानियाँ शासन करती थीं, जो समृद्धि और बुद्धिमत्ता दोनों की प्रतीक थीं।
विमलप्रभा नामक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार, इस समाज में पुरुष बाहरी कार्य संभालते थे जबकि राज्य संचालन स्त्रियाँ करती थीं। कल्हण ने इस प्रसंग को लगभग काव्यात्मक बना दिया — उन्होंने लिखा कि ‘ललितादित्य के सैनिक युद्धभूमि में भी सौंदर्य से मोहित हो उठे।’ यद्यपि यह संभवतः प्रतीकात्मक कथा है, पर यह हिमालयी मातृसत्तात्मक समाजों की झलक भी देती है — जिससे यह प्रसंग ऐतिहासिक और मानवशास्त्रीय दोनों दृष्टियों से रोचक बन जाता है।
4. अग्नि-ज्वाला और मृत्यु की किंवदंती
ललितादित्य की मृत्यु भारतीय इतिहास की सबसे नाटकीय घटनाओं में से एक मानी जाती है। राजतरंगिणी में एक कथा है कि जब वे उत्तर की दिशा में आर्याणक क्षेत्र की ओर गए, तो भीषण बर्फ़ीले तूफ़ान में उनका दल फँस गया और वहीं वे प्राण त्याग बैठे।
दूसरी कथा कहती है — जब उन्होंने देखा कि सेना फँस गई है और बचना असंभव है, तो उन्होंने एक विशाल अग्निकुंड तैयार करने का आदेश दिया। वे अपने सेनापतियों के साथ उसमें प्रवेश कर गए और स्वयं को अग्नि में अर्पित कर दिया — पराजय से पहले सम्मान चुनते हुए।
यह घटना प्रतीक बन गई — एक ऐसे सम्राट की, जिसने सूर्य की भाँति प्रज्वलित होकर संसार को आलोकित किया और फिर स्वयं अपनी ज्वाला में विलीन हो गया।
5. तिब्बती आक्रमण और 747 ईस्वी की हिंसा
न्यू बुक ऑफ तांग जैसे चीनी अभिलेख बताते हैं कि 747 ईस्वी में तिब्बती सम्राट त्रीदे त्सुक्त्सेन ने कश्मीर पर आक्रमण किया ललितादित्य की सेनाओं ने इस हमले को परास्त किया और पामीर पार कर कूचा और तुरफान (टारिम बेसिन) तक पहुँच गईं।
यह प्रत्याक्रमण उस समय हुआ जब चीन में आन लुशन विद्रोह (755 ईस्वी) की भूमिका बन रही थी। ललितादित्य ने इस वैश्विक अस्थिरता को अवसर में बदलते हुए कश्मीर के प्रभाव को मध्य एशिया की गहराई तक स्थापित कर दिया — एक ऐसी उपलब्धि, जिसे आज भी मुख्यधारा भारतीय इतिहास शायद ही पूरा श्रेय देता है।
6. चीनी दूत और सोने के उपहार
तांग साम्राज्य के अभिलेख बताते हैं कि 749 ईस्वी में तुखारिस्तान से दूत कश्मीर आए और ललितादित्य के दरबार में तिब्बत-विरोधी समझौते को फिर से मजबूत किया। इसके बाद चीन के सम्राट शुआनज़ोंग ने रेशमी वस्त्र, सोना और सम्मान की उपाधियाँ भेजीं — धन्यवाद और सम्मान के प्रतीक के रूप में।
एक साल बाद, ललितादित्य की सेना ने तांग सेनापति गाओ शेनज़ी के साथ मिलकर काशगर पर कब्ज़ा किया। यह दिखाता है कि कश्मीरी सम्राट का प्रभाव सीमा से बहुत दूर तक था और उनकी कूटनीति महाद्वीपों तक फैली हुई थी।
कश्मीर और तांग चीन का यह सहयोग, औपचारिक एशियाई कूटनीति से बहुत पहले हुआ था और ललितादित्य के शासन की एक अनदेखी परंतु महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
7. दक्कन का संबंध और हरमन गोट्स के विचार
जर्मन विद्वान हरमन गोट्स ने 20वीं सदी में राजतरंगिणी का अध्ययन करते हुए कुछ अनोखे निष्कर्ष दिए। उन्होंने कहा कि दक्कन में पराजित की गई “रट्टा रानी” वास्तव में चालुक्य वंश की राजकुमारी भावगणिका थीं, जो राष्ट्रकूट राजा इंद्र प्रथम की पत्नी थीं। कहा जाता है कि उन्होंने राजवंशीय संघर्ष में कश्मीर के सम्राट ललितादित्य से मदद माँगी थी।
गोट्स ने “मुम्मुनी” को कोंकण के शिलाहार शासक से और “लाटा के कय्या” को राष्ट्रकूट कर्क से जोड़ा, जो कश्मीर में मंदिर निर्माण से भी जुड़े माने जाते हैं। यदि ये पहचानें सही हों, तो यह साबित होता है कि कश्मीर के साम्राज्य का प्रभाव हिमालय से लेकर पश्चिमी घाट तक फैला था।
8. अग्निकुल कथा और राजपूतों की उत्पत्ति
गोट्स ने ललितादित्य को अग्निकुल कथा से भी जोड़ा — वह प्रसिद्ध कथा जिसमें मेवाड़ के गुहिलों सहित कई राजपूत वंशों की उत्पत्ति माउंट आबू की अग्निकुंड से बताई गई है। उन्होंने सुझाव दिया कि बप्पा रावल, गुहिल वंश के संस्थापक, शायद ललितादित्य के सामंत रहे हों और मध्य एशिया के अभियानों में शहीद हुए हों।
यह मत भले ही अनुमान पर आधारित हो, लेकिन यह राजस्थान के योद्धा इतिहास को कश्मीर के इस सूर्य-सम्राट से जोड़ता है — मानो अग्निकुल की ज्वाला कभी मार्तंड सन मंदिर की छाया में भी चमकी हो।
9. राजकुमारी जिनचेंग और शरण का अनुरोध
तांग ग्रंथ बताते हैं कि 723 ईस्वी में, ललितादित्य के राज्यारोहण से ठीक पहले, चीन की राजकुमारी जिनचेंग, जो तिब्बती सम्राट से विवाहित थीं, ल्हासा की राजनीति से परेशान होकर कश्मीर में शरण चाहती थीं।
उन्होंने कश्मीर और ज़ाबुलिस्तान के बीच तिब्बत-विरोधी गठबंधन का प्रस्ताव रखा, जिसे चीन के सम्राट शुआनज़ोंग ने भी मंज़ूरी दी।
लेकिन कश्मीर के राजा तरापीड़ की मृत्यु के कारण यह योजना पूरी नहीं हो सकी। यह घटना दिखाती है कि ललितादित्य से पहले भी कश्मीर हिमालयी राजनीति में एक महत्वपूर्ण शक्ति था।
10. बामियान बुद्ध और तांबे की विशाल प्रतिमा
परीहासपुरा, ललितादित्य की राजधानी, में मिले अवशेष बताते हैं कि वहाँ एक विशाल सुनहरी तांबे की बुद्ध प्रतिमा थी, जो अफगानिस्तान के बामियान के महान बुद्ध से प्रेरित थी।
यह प्रमाण है कि 730 ईस्वी से पहले ही कश्मीर का बामियान और तुखारिस्तान से सांस्कृतिक और शायद सैन्य संबंध भी था। यह कश्मीर और गांधार कला के मिलन का अद्भुत उदाहरण है — जहाँ बौद्ध और हिंदू कला साथ-साथ आगे बढ़ी।
इतिहास और अग्नि के बीच
ये कम ज्ञात तथ्य और कथाएँ ललितादित्य को केवल एक विजेता नहीं, बल्कि बहुमुखी व्यक्तित्व वाले शासक के रूप में प्रस्तुत करती हैं — एक रणनीतिकार, सुधारक और किंवदंती का पात्र। उसका जीवन इतिहास और महाकाव्य के बीच झूलता है — एक ऐसा राजा, जो कवियों के साथ संधि पर चर्चा करता था, देवताओं के लिए नगर बसाता था, रेगिस्तानों के पार सम्राटों से मित्रता करता था, और कुछ आख्यानों के अनुसार, पराजय की बजाय अपने ही तेज में विलीन हो जाना पसंद करता था।
यदि कल्हण ने उसे “राजाओं में सूर्य” कहा, तो वह केवल उसकी विजयों के कारण नहीं, बल्कि उसकी कल्पना की उजास के कारण था। तेरह शताब्दियाँ बीत जाने पर भी, वह प्रकाश आज भी मार्तण्ड के खंडहरों पर झिलमिलाता है — उन कहानियों के रूप में, जिन्हें समय भी पूरी तरह मिटा नहीं सका।
ललितादित्य और मुहम्मद बिन क़ासिम की कथा: जब दो सूर्य आमने-सामने हुए
भारत के भूले-बिसरे इतिहास में अनेक किंवदंतियाँ हैं, पर कुछ ही ऐसी हैं जो कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड़ और उम्मयद सेनापति मुहम्मद बिन क़ासिम की कथित भेंट जितनी रोमांचक हों।
इतिहासकार इस घटना की प्रामाणिकता पर मतभेद रखते हैं, पर यह कथा इसलिए जीवित है क्योंकि यह उस युग की भावना को प्रकट करती है — जब साम्राज्य उठे, धर्मों में टकराव हुआ, और साहस ने सभ्यता की परिभाषा तय की।
शक्ति और उद्देश्य का मिलन
कश्मीरी लोककथाओं और कुछ फ़ारसी आख्यानों के अनुसार, जब 711 ईस्वी में मुहम्मद बिन क़ासिम की सेनाएँ सिंध पर चढ़ आईं, तो उनकी दृष्टि उत्तर के हिमालयी राज्यों की ओर भी उठी।
यह समाचार कश्मीर के राजकुमार ललितादित्य तक पहुँचा — एक ऐसे सेनानायक की खबर, जो सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को अपने अधीन करने का दावा कर रहा था। इसके बाद जो हुआ, वह एक प्रतीकात्मक संघर्ष बन गया — रेगिस्तान की अग्नि और पर्वत के सूर्य के बीच।
कहा जाता है कि जब क़ासिम की सेना मुल्तान के पार पहुँची, तब ललितादित्य — अपने भाई चंद्रपीड के अधीन रहते हुए — कश्मीरियों, दारदों और काबुल शाहियों का संयुक्त मोर्चा लेकर आगे बढ़े। दोनों सेनाएँ सॉल्ट रेंज के मैदानों में भिड़ीं। संघर्ष छोटा था, पर निर्णायक — अरब सेना पीछे हट गई, और कश्मीर की घाटी कभी उनके अधीन नहीं हो सकी।
एक टकराव जिसने दिशा बदल दी
थोड़े समय बाद क़ासिम को दमिश्क वापस बुला लिया गया — पराजित युद्ध में नहीं, बल्कि अधूरी महत्वाकांक्षा में। कश्मीरी इतिहासकारों ने इसे प्रतीकात्मक रूप से देखा — मानो सूर्य ने चंद्रमा की छाया को रोक दिया हो, और कश्मीर की रक्षा स्वयं देवत्व ने की हो। बाद में जब ललितादित्य स्वयं सम्राट बने (724–760 ई.), तो उनके अरब और तुर्क शत्रुओं के विरुद्ध अभियान उसी प्रथम प्रतिरोध की निरंतरता माने गए।
लोककथाओं में यह घटना केवल सैन्य इतिहास नहीं, बल्कि एक नैतिक सत्य बन गई — साहस की विजय, आत्मसम्मान की रक्षा, और असहिष्णुता पर सभ्यता की जीत।
तलवार से परे प्रतीक
भले ही आधुनिक इतिहास इस मुठभेड़ की पुष्टि करने से हिचकता है, पर इसका प्रतीकात्मक अर्थ अटल है। कश्मीर की लोकस्मृति में ललितादित्य वह राजा हैं, जिन्होंने उत्तर के द्वार की रक्षा की — जहाँ दूसरे झुके, वहाँ वे अडिग खड़े रहे।
उनकी बाद की अरब-विजय यात्राओं ने इस कथा को और विश्वसनीय बनाया — यह सिद्ध करते हुए कि चाहे उन्होंने क़ासिम से युद्ध किया हो या नहीं, वे उसी प्रतिरोध की भावना के प्रतीक थे जिसने उसे रोका था।
कश्मीर के कवियों के लिए यह आवश्यक नहीं था कि तलवारें वास्तव में टकराई हों — उनके लिए यह मायने रखता था कि कश्मीर कभी नहीं झुका।
प्रकाश की विरासत
इस प्रकार ललितादित्य और मुहम्मद बिन क़ासिम की कथा केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि भारत की सहनशीलता और आत्मगौरव का प्रतीक बन गई।
यह कहानी एक ऐसे राजा की है जिसने साम्राज्य की छाया के सामने अडिग होकर प्रकाश चुना — एक ऐसी सभ्यता की जो पराजय से नहीं, धैर्य से परिभाषित हुई।
इन दोनों नामों — क़ासिम और ललितादित्य — के मिलन में इतिहास कोई विरोध नहीं देखता, बल्कि संतुलन देखता है: एक था सिंध का विजेता, दूसरा हिमालय का रक्षक — और पर्वत सदैव अजेय रहे।
चाहे यह कथा तथ्य हो या आस्था, इसका सत्य उसी तरह चमकता है — क्योंकि कुछ सत्य ऐसे होते हैं जिन्हें प्रमाण की आवश्यकता नहीं, केवल उदय की।
निष्कर्ष: कश्मीर का विस्मृत सूर्य
कहा जाता है, इतिहास विजेताओं को याद रखता है — पर कुछ विजेता ऐसे भी होते हैं जो हार में नहीं, विस्मरण में खो जाते हैं। ललितादित्य मुक्तापीड़, जिसने एक समय पामीर की बर्फ़ से लेकर कलिंग के रेतीले तटों तक शासन किया, ऐसा ही एक नाम है।
उसकी वीरता असीम थी, उसका साम्राज्य व्यापक, और उसका दृष्टिकोण अपने युग से बहुत आगे।
फिर भी जहाँ छोटे-छोटे राजा शिलालेखों और पाठ्यक्रमों में दर्ज हैं, वहाँ ललितादित्य केवल खंडहरों, किंवदंतियों और इतिहास की फुसफुसाहटों में जीवित है।
दुनिया अलेक्ज़ेंडर को हिन्दूकुश पार करने के लिए याद रखती है, पर शायद ही याद करती है उस कश्मीरी राजा को, जिसने उससे भी आगे तक विजय पताका फहराई थी। भारत अशोक को धर्म प्रचारक के रूप में पूजता है, पर भूल जाता है उस सम्राट को जिसने धर्मों को स्थापत्य की भाषा में जोड़ा।
वह ऐसा शासक था जिसने कूटनीति को युद्ध से पहले समझा, पर्वतों को मंदिरों में रूपांतरित किया, और जिसकी वीरता ही उसका वरदान और उसका बोझ बन गई।
शायद उसका विस्मरण उसी में छिपा है — उसकी कथा इतनी विराट थी कि आधुनिक स्मृति की सीमाओं में समा ही नहीं सकी।
उसका जीवन इतिहास और मिथक के बीच झिलमिलाता है — उन लिपियों में जो अब विलुप्त हैं, और उन पत्थरों में जो अब भी जीवित हैं।
आज भी मार्तण्ड सूर्य मंदिर की टूटी स्तंभों पर जब सुबह की किरणें पड़ती हैं, तो लगता है मानो उसका तेज अब भी वहीं ठहरा हुआ है —
एक याद के रूप में, कि सच्ची वीरता केवल इस बात में नहीं होती कि कोई क्या जीतता है,
बल्कि इस बात में होती है कि समय उसे भुला भी दे, तो भी उसका प्रकाश बना रहे।
ललितादित्य मुक्तापीड़ — कश्मीर का सूर्य — आज भी जलता है, इतिहास की निस्तब्धता में, अपनी ही ज्योति की गूंज में।
