19वीं सदी का वो दौर जिसमें एक सामान्य लड़की ने अपनी असाधारण प्रतिभा से दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह देश को अपनी नीतियों को बदलने पर मजबूर कर दिया। देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम, वीरता, साहस, शिक्षा और परम्पराओं को सहेजकर महिला सशक्तिकरण की अनूठी मिशाल बनकर, 21वीं सदी को राह दिखाती क्रांतिकारी महिला जो झांसी की रानी के नाम से आज भी भारत की बहादुर महिलाओं में जिंदा है।
भारत ही नहीं अपितु दुनिया में जहां भी महिलाओं के सशक्त होने के लिए प्रयास किए जाएगें, भारत की वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई उनकी मार्गदर्शक रहेंगीं।
19 नवम्बर सन् 1828 को काशी के असीघाट, वाराणसी में मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई के घर एक असाधारण बालिका का जन्म हुआ जिसे प्यार से मनु कहा और उसका नाम ’मणिकर्णिका’ रखा गया।
मनु जब लगभग चार वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। बचपन मां के दुलार से वंचित रहा लेकिन भारत मां का लाड़-प्यार उनपर बेपनाह बरसा। उनके चमत्कारी व्यक्तित्व की झलकियाँ बचपन से दिखाई देने लगी थी । उनका बचपन बिठूर में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के आंगन में बीता।
नाना साहब, तात्या टोपे और अजीमुल्लाह खान मनु के बचपन के सहयोगी थे। मनु ने तलवारबाजी, घुड़सवारी, तीरंदाजी नाना साहब और तात्यातोपे के मार्गदर्शन में सीखी। भारत में उस दौर में महिलाओं के लिए पढ़ना, लिखना, घुडसवारी, तीरंदाजी जैसी विधाओं में महारथ होना सहज न था। जब इतिहास के पन्नों में महिला योद्धाओं की फेहरिस्त तलाशें तो हमें कुछ चंद नामों के अलावा कुछ नहीं मिलता। तब मनु के शौक लोगों को अचंभित करने वाले थे। शायद उनका जन्म बेहद खास मकसद को पूरा करने के लिए हुआ था।
आज भी जब किसी लड़की के द्वारा विशेष बहादुरी का काम किया जाता है तो उसका हौसला अफजाई करने के लिए उसे ’झांसी की रानी’ कह देने मात्र से उसके भीतर जोश का समुद्र उफान लेने लगता है। निसंदेह महिला सशक्तिकरण की भारतीय ब्रांड अम्बेसडर हैं “झांसी की रानी लक्ष्मीबाई”।
बचपन में मनु के प्रिय खेल थे- नकली युद्ध करना, व्यूह की रचना करना और शिकार करना। उनकी बहादुरी के निशान आज भी झांसी की सरजमीं पर हर ओर देखे जा सकते हैं। झांसी के बीच में बुलंदी से खड़ा झांसी का किला जिसे बनवाने वाले यकीनन ’वीरसिंह बुंदेला’ थे। लेकिन झांसी के किले को क्रान्ति का प्रतीक बनाने वाली महारानी लक्ष्मीबाई ही थी। आज भी किले की बुलंद दीवारों को देख लगता है जैसे वो रानी की वीरता और निड़रता की अनगिनत कहानियों को मजबूती से थामें खड़ी हों।
सन् 1842 में मनु का विवाह झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवलेकर से हुआ। विवाह के बाद मणिकर्णिका का नाम लक्ष्मीबाई पड़ा। कुछ समय पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर कुछ ही महीने बाद बालक की मृत्यु हो गई। पुत्र वियोग के आघात से दु:खी महाराज गंगाधर राव ने भी लगभग 21 नवंबर, 1853 को अपने प्राण त्याग दिए। झांसी शोक में डूब गई। अंग्रेजों ने अपनी कुटिल नीति के चलते झांसी पर चढ़ाई कर दी। मृत्यु से पूर्व राजा गंगाधर राव ने आनंद राव को गोद ले लिया और उसका नाम दामोदर राव रखा गया । रानी के अंतिम युद्ध में वीरता का गवाह उनके पीठ से बंधा बहादुर पुत्र दामोदर राव भी रहा।
बचपन में रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी की कहानियों एवं कविताओं को पढ़कर लगता था, क्या सच में ऐसा किरदार दुनिया में हुआ होगा? और वो भी अपने ही शहर के इतना नज़दीक। झांसी के किले और उससे जुडी कहानियां हमेशा रोमांचित करती रहीं। आज भी भारतीय युवा पीढ़ी में प्रेरणादायक किरदारों में सबसे प्रमुख है महारानी लक्ष्मीबाई का किरदार।
वास्तव में उन पर लिखा साहित्य और अभी तक उन पर बनी फिल्मों में उनके संघर्ष को पूरी तरह उतारा ही नहीं जा सका। झांसी में गुजरे उसके संघर्ष और झांसी की प्रजा के लिए उनके प्रेम एवं तत्कालीन हिन्दु-मुस्लिम साझा संस्कृति को बनाए रखने की उनकी कोशिशें, 19वीं सदी में महिलाओं की अपनी सेना तैयार करना, महिलाओं को प्रशिक्षण देकर न केवल ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम करना बल्कि उन महिलाओं में यह आत्मविश्वास जगाना कि उनकी भूमिका घर और परिवार के साथ पुरुषों का दाया कंधा बनना भी है। यकीनन इस को किसी पर्दे पर दर्शाना बेहद मुश्किल है।
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने के लिए गुलाम गौस खान, दोस्त खान, खुदा बख्श, काशी बाई, लाला भाई बख्शी, मोती बाई, झलकारी बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह के साथ मिलकर लगभग 14000 लोगों की एक बड़ी फौज को तैयार किया था ।
बुंदेलखण्ड की गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिशाल थीं रानी लक्ष्मीबाई
आज भी झांसी के लोगों से बात करके ऐसा मालूम होता है जैसे रानी आज भी उनके हृदय में जीवित हैं। बुंदेलखण्ड की गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिशाल थीं रानी लक्ष्मीबाई। डलहौजी की हड़प नीति के तहत जब झांसी पर संकट के बादल मंडराए, रानी ने अपने साम्राज्य और झांसी के लोगों की रक्षा करने के लिए जिस अदम्य साहस से मोर्चा अपने हाथों में लिया उसे देख ब्रिटिश हुकूमत थर्रा गई। रानी जितनी तेज तर्रार थी उतनी ही मृदुभाषी, रिश्ते बनाने और निभाने में निपुण भी थी।
कहते है कि 1857 की क्रांति में महारानी लक्ष्मीबाई ने बांदा के नवाब अली बहादुर द्वितीय को राखी भेजकर क्रांति में सहयोग करने के लिए कहा, जिसके लिए बांदा नवाब अली बहादुर अपनी बहन रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए 10000 सैनिकों के साथ आजादी के संग्राम में रानी के साथ हो लिए। बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के त्यौहार को आज भी हिंदू- मुस्लिम भाई-बहन उसी उत्साह से मनाते हैं।
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के तीन प्रिय घोड़े थे जिनके नाम सारंगी, बादल और पवन थे। अपने अंतिम युद्ध के समय रानी जिस घोड़े पर सवार थीं उसका नाम बादल था। रानी के अंग्रेजों से हुए अंतिम युद्ध में नवाब अली बहादुर उनके साथ थे। भोपाल की बेगम का एक एजेंट भवानी प्रसाद जो उस समय मध्य भारत के अंग्रेजी एजेंट सर रॉबर्ट हैमिल्टन की छावनी में था, उसने रानी के अंतिम युद्ध और रानी की 17 जून को मृत्यु के समाचार को, एक पत्र के माध्यम से 18 जून को बेगम को सूचना दी थी।
हालांकि कुछ इतिहासकार उनके इस पत्र में लिखी कई बातों को पूर्णता सत्य नहीं मानते अपितु इससे इतना तो पता चलता है कि रानी के अंतिम युद्ध में बांदा नवाब अली बहादुर उनके साथ थे। रानी की कालपी से ग्वालियर तक की यात्रा ह्यूरोज के लिए आश्चर्यचकित करने वाली थी। उसके अनुमान से कहीं ज्यादा थी रानी की वीरता।
ह्यूरोज के बहादुरपुर तक बढ़ आने की खबर के बाद 16 जून को सेना की कमान तात्या टोपे ने संभाली। रानी ने ग्वालियर से पूर्व का सबसे कठिन मोर्चा संभाला। इस अंतिम युद्ध में रानी के विश्वासपात्र सहयोगियों ने बराबर साथ दिया। उनके साथ सेना की कमान संभाले नवाब अली बहादुर भी अपने प्राणों की चिंता किए बगैर रणभूमि में वीरता से डटे रहे।
रानी दोनों हाथों से तलवार चलाने में पारंगत थीं। उन्होंने घोड़े की बाग दांतों में दबा कर अंग्रेजी सेना के होश उड़ाने का काम किया। युद्ध भूमि में उनकी सेविका मित्र मुंदर एक अंग्रेज सैनिक की गोली लगने से शहीद हो गयी। रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजी सेना पीछे हटने लगी लेकिन तभी ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ गया।
कहते हैं तब रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया और आगे बढ़ी, सोनरेखा नाले को उनका घोड़ा पार न कर सका। वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से जोरदार प्रहार कर दिया जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आंख बाहर आ गयी।
कहते हैं घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक को मौत के घाट उतार दिया और फिर अपने प्राण त्याग दिए। कुछ इतिहासकार 17 तथा कुछ 18 जून 1857 उनकी शहादत का दिन मानते हैं। रणभूमि के निकट ही रानी का बाबा गंगादास की कुटिया में अंतिम संस्कार किया गया। रानी की इच्छा अनुसार उनका मृत शरीर भी अंग्रेजों के हाथ न आ सका। 18 जून को रानी की वीरगति की खबर ब्रिटिश हुकूमत को हुई।शायद इसलिए उनकी अंतिम संस्कार की तिथि को लेकर इतिहास की पुस्तकें अलग-अलग तारीखें बताती हैं।
1857 की क्रांति बेशक सफल न हो सकी लेकिन ब्रिटिश हुकूमत को लोहे के चने चबाने पर मजबूर होना पड़ा। लार्ड कैनिंग के नेतृत्व में हुई इस क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत को अपनी नीतियों पर जबरदस्त परिवर्तन करने पर विवश कर दिया। उन्हें मानना पड़ा कि रानी लक्ष्मीबाई का साहस और शौर्य का कोई मुकाबला नहीं था ।