सुबह के 9 बजकर 15 मिनट, जगह — देहरादून। शिवालिक पहाड़ियों की गोद में बसा यह शहर, जो सामान्य दिनों में स्कूल बसों की आवाज़ों, ठेलों की पुकार और स्कूटरों की रफ्तार से जीता है, आज ठहरा हुआ है।
सड़कें बंद हैं, बैरिकेड धूप में चमक रहे हैं, पुलिसकर्मी आदेश दे रहे हैं, हॉर्नों की आवाज़ें गुस्से में गूंज रही हैं। कहीं दूर, शोर और झुंझलाहट के बीच से एक काफिला निकलता है — सायरन बजते हैं, झंडे लहराते हैं, काली शीशों वाली गाड़ियाँ सत्ता का अहंकार चमका रही हैं और लोग? बस इंतज़ार करते हैं। फिर से।
इंतज़ार में जीता शहर
कभी “धीमी बारिश और सीखने के शहर” के रूप में जाना जाने वाला देहरादून अब “इंतज़ार का शहर” बन गया है — जहाँ हर बार सत्ता गुजरती है, लोकतंत्र ठहर जाता है।
राष्ट्रपति से लेकर राज्य के मंत्री तक, हर “वीआईपी” के आने का मतलब होता है आम लोगों के लिए रुकना, झेलना, और सहना।
प्रोटोकॉल के बंधक बने लोग
जून से नवंबर 2025 के बीच देहरादून के लोगों ने देखा कि जब सत्ता चलती है, तो जनता रुक जाती है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की दो यात्राओं के दौरान — पहली जून में, फिर नवंबर में — पूरा शहर जैसे बंद कर दिया गया।
राजपुर रोड से लेकर क्लॉक टावर, ई.सी. रोड से हाथीबड़कला तक —हर बड़ी सड़क सील, गाड़ियाँ मोड़ दी गईं, लोग भटकते रहे तंग गलियों में। जहाँ 20 मिनट लगने चाहिए थे, वहाँ सफ़र डेढ़ घंटे तक खिंच गया।
दिहाड़ी मज़दूरों की रोज़ी गई, बच्चे स्कूल नहीं पहुँच पाए, दफ़्तर जाने वाले देर से पहुँचे — सिर्फ कुछ मिनटों के शाही गुजरने के लिए।
“डी-3 प्रोटोकॉल” का झमेला
पुलिस ने “डी-3 प्रोटोकॉल” के तहत तीन घंटे पहले रूट बदलने की सूचना दी थी, पर हकीकत में अव्यवस्था और अफरा-तफरी थी।
एक राहगीर ने बताया —
“दुकान तक जाने में दो मिनट लगते हैं, पर वीआईपी के दिन बीस मिनट से पहले पहुँचना नामुमकिन होता है।”
इसके ऊपर “सौंदर्यीकरण अभियान” का तमाशा — रातों-रात दीवारें रंगीं, अधूरे पुल सजाए गए, पौधे लगाए गए, पर पैदल चलने वाले धूल और रुकावटों में फँस गए। इतिहासकार लोकेश ओहरी ने इन तैयारियों को कहा —
“पर्यावरण के खिलाफ़ और नागरिकता के अपमान जैसा।”
नवंबर 2025: ‘साइलेंट ज़ोन’ का विरोधाभास
राष्ट्रपति की दूसरी यात्रा के दौरान प्रशासन ने राजपुर रोड और राष्ट्रपति निकेतन के आसपास 300 मीटर का इलाका “साइलेंट ज़ोन” घोषित कर दिया। हॉर्न, लाउडस्पीकर, यहाँ तक कि स्कूल बसों की आवाज़ें भी बंद कर दी गईं।
पर विडंबना यह कि जिस शहर को सम्मान के नाम पर चुप कराया गया, वह गाड़ियों के जाम और लोगों की झुंझलाहट से और ज़ोर से ‘बोलने’ लगा। देहरादून में अब ‘“खामोशी’ भी असमानता की आवाज़ बन गई है।
सायरन संस्कृति
लोग अब इसे कहते हैं — “सायरन सिटी सिंड्रोम।” राज्य बनने के बाद से सड़कों पर एक नया राजतंत्र बस गया है — मंत्री, अधिकारी, और पुलिस काफिले के सम्राट।
2017 में “लाल बत्ती” संस्कृति पर रोक लगी, पर ‘उत्तराखंड सरकार’ लिखी गाड़ियाँ अब भी सायरन बजाते हुए लाल बत्ती तोड़ती हैं।
लाल बत्तियाँ भले हट गई हों, पर अधिकार का घमंड अब भी जस का तस है।
लोग मज़ाक में कहते हैं —
“सायरन की लंबाई से मंत्री का ओहदा पहचान लो।”
पर यह मज़ाक नहीं, एक मानसिक थकान है, जो हर नागरिक रोज़ झेलता है।
आम आदमी का अपमान
सबसे बड़ा ज़ख्म ट्रैफिक नहीं, अपमान है। जब कोई सिपाही झल्लाकर कहता है —
“रुको, वीआईपी मूवमेंट है,”
तो असल संदेश यही होता है —
तुम्हारा वक़्त, तुम्हारी ज़रूरत, तुम्हारी तकलीफ़ — मायने नहीं रखती।
बुज़ुर्ग, बीमार, स्कूटर सवार — सब एक ही कतार में रुकते हैं, धूप में, धूल में, आदेश की प्रतीक्षा में। यह सुरक्षा नहीं, यह अधीनता है।
अदृश्य नुकसान
हर बंद सड़क अपने साथ अदृश्य नुकसानों की लिस्ट लाती है। क्लॉक टावर और पलटन बाज़ार के छोटे दुकानदारों की बिक्री गिर जाती है। ऑटो और टैक्सी ड्राइवरों की पूरी शिफ्ट बर्बाद हो जाती है। डिलीवरी अटक जाती हैं और ‘छूट’ होने के बावजूद, एम्बुलेंस और स्कूल बसें भी फँस जाती हैं।
पहाड़ी शहर की सँकरी सड़कों में हर बैरिकेड एक गला घोंटने वाला बिंदु बन जाता है। देहरादून की असली चुनौतियाँ — अवैध निर्माण, बारिश का पानी भरना, पर्यावरण का ह्रास — सब और बिगड़ जाते हैं जब सत्ता की सुविधा जनता के धैर्य से ऊपर रखी जाती है।
एक काफिले की असली कीमत
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हर बंद सड़क, कई ज़िंदगियाँ रोक देती है।
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एम्बुलेंस देर से पहुँचती है।
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बच्चे स्कूल बसों में पसीने से भीगते हैं।
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मज़दूरों की रोज़ी जाती है।
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दुकानों के शटर बंद रहते हैं।
ये छोटी असुविधाएँ नहीं, एक ऐसे लोकतंत्र की निशानियाँ हैं जो अपने नागरिकों को भूल गया है। अगर किसी की जान इसलिए चली जाए कि एम्बुलेंस एक काफिले के इंतज़ार में रुकी थी, तो क्या उस जान की कीमत किसी ‘सुरक्षा प्रोटोकॉल’ से चुकाई जा सकती है?
देहरादून साफ़ होता है जब वीआईपी आते हैं, पर जाते समय पीछे छोड़ जाते हैं — धूल, जाम, और आम लोगों की थकी हुई सांसें।
जब जनता का सब्र, ग़ुस्से में बदल गया
साल 2025 के बीच तक, लोगों की झुंझलाहट अब नाराज़गी में बदल चुकी थी। उत्तराखंड के सोशल मीडिया पर “VIP संस्कृति” का मज़ाक उड़ाते हैशटैग ट्रेंड कर रहे थे। लोगों ने वीडियो और रीलें डालीं — खाली सड़कों पर गुजरते काफ़िलों की, जिनके नीचे लिखा था “उनके लिए, हमारे लिए नहीं।”
मेम्स में मंत्रियों के सायरन की तुलना शादी की बारातों से की गई, और कई लोगों ने पूछा — “क्या देहरादून अब एक छोटा ‘विशेषाधिकार वाला दिल्ली’ बन गया है?” मुख्यमंत्री ने गड्ढामुक्त सड़कों का वादा किया था, पर लोग हँसते हुए बोले — “कभी ऐसा दिन आएगा जब हमें सायरनमुक्त सड़कें मिलेंगी?”
सुरक्षा नहीं, अधिकार जताने की संस्कृति
सुरक्षा ज़रूरी है, पर घमंड नहीं।
दिल्ली जैसी विशाल और संवेदनशील राजधानी में भी वीआईपी आवाजाही को इतने अनुशासन से संभाला जाता है कि जनता को कम से कम परेशानी होती है। तो फिर सिर्फ सात लाख की आबादी वाला देहरादून ऐसा क्यों नहीं कर सकता?
उत्तराखंड को ज़रूरत और बैरिकेड्स की नहीं, बल्कि बेहतर व्यवस्था की है:
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ट्रैफिक सलाह कम से कम एक दिन पहले सार्वजनिक हो।
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सायरन का इस्तेमाल सिर्फ़ आपात स्थितियों में हो।
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ऐसे निर्धारित रास्ते (VIP Corridors) बनाए जाएँ जो पूरे शहर को न रोकें।
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नागरिकों के लिए हेल्पलाइन हों जहाँ वे दुर्व्यवहार या ग़लत इस्तेमाल की शिकायत कर सकें।
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प्रशासन का असर हमदर्दी से दिखे, न कि सायरन की आवाज़ से।
अवरोधों की घाटी
देहरादून की बार-बार ठहरती ज़िंदगी अब प्रशासनिक गलती नहीं — नैतिक असफलता बन चुकी है। एक ऐसा शहर जो सत्ता के लिए रुकता है, उसने अपने लोकतंत्र को बैरिकेड पर गिरवी रख दिया है।
अगर सरकार इस बढ़ते असंतोष को नज़रअंदाज़ करती रही, तो उत्तराखंड सिर्फ़ अपनी शांति ही नहीं, बल्कि जनता का भरोसा भी खो देगा। “दून की घाटी” तब “अवरोधों की घाटी” बन जाएगी — जहाँ सत्ता आसानी से बहती है और जनता वहीं ठहरी रह जाती है।
क्योंकि आखिर में शासन की असली कसौटी यह नहीं है कि सत्ता कितनी तेज़ चलती है, बल्कि यह कि जनता कितनी आज़ादी से चल पाती है।
कैसे सत्ता ठप कर देती है पूरे शहरों को (2025)
देहरादून इस समस्या की अकेली मिसाल नहीं है। दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक, 2025 में वही कहानी दोहराई गई — सायरन, काफ़िले, बैरिकेड्स, और जनता का ठहरा हुआ जीवन। “सुरक्षा प्रोटोकॉल” के नाम पर जो सुविधा कुछ लोगों को दी जाती है, वह आम नागरिकों के लिए जाम, देरी और बेबसी में बदल जाती है।
हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, न्यूज़18 और स्थानीय ट्रैफिक विभाग की रिपोर्टों के अनुसार, 2025 ने एक बार फिर साबित कर दिया कि भारत में VIP संस्कृति आज भी सबसे “अचल” — यानी हिलने-डुलने न देने वाला अवरोध है।
दिल्ली: जहाँ आम आदमी काफ़िले के गुज़रने का इंतज़ार करता है
सितंबर 2–3- 2025 को भारी बारिश और मंत्री काफ़िलों के चलते दिल्ली बुरी तरह जाम हो गई। आईटीओ, कश्मीरी गेट और रिंग रोड पर 30 मिनट का सफ़र 3 घंटे तक खिंच गया। स्कूल बसें पानी में फँसी रहीं, एम्बुलेंस आगे नहीं बढ़ पाईं, और लोग ऑनलाइन शिकायतें करने लगे — “दिल्ली अब दो हिस्सों में बँट गई है — एक जो रुकती है, और एक जो निकल जाती है।”
स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों से लेकर कैबिनेट बैठकों तक, कनॉट प्लेस और इंडिया गेट बार-बार बंद हुए। जो पहले “कभी-कभार की असुविधा” लगती थी, अब स्थायी घमंड का प्रतीक बन गई है।
पुणे: विडंबना और अहंकार से जकड़ा शहर
23 जून 2025 को विडंबना यह हुई कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का खुद का काफ़िला ट्रैफिक जाम में फँस गया। वह एक “जाम कम करने की परियोजना” का निरीक्षण करने जा रहे थे, पर वही जाम उन्हें रुकवा गया। सुरक्षा के लिए लगाए गए बैरिकेड ही सबसे बड़ी रुकावट बन गए — एम्बुलेंसें फँसीं, यात्राएँ रुकीं।
12 अक्टूबर (दशहरा) को मंत्रियों के काफ़िलों और त्योहार की भीड़ ने कार्वे रोड, एफसी रोड, जेएम रोड को जाम से पाट दिया। लोग एक घंटे तक गाड़ियों में बैठे रहे, छोटे व्यापारियों की बिक्री घट गई, और किसी को कोई चेतावनी नहीं मिली। लोगों ने कहा — “यह उत्सव नहीं, विशेषाधिकार का प्रदर्शन है।”
हैदराबाद: विरोध, काफ़िले और खत्म होता सब्र
5 जुलाई 2025 को एक साथ मंत्री यात्राएँ और सार्वजनिक प्रदर्शन हुए — टैंक बंड, नेकलेस रोड और बंजारा हिल्स पर पूरा शहर ठप पड़ गया। लोगों ने एक-दो घंटे के जाम झेले, मजदूरों की कमाई गई, छात्रों की परीक्षा छूट गई।
8 अगस्त को नागरिकों ने “हॉर्न प्रोटेस्ट” किया — लोगों ने एक साथ हॉर्न बजाकर कहा, “हम अपने अधिकारों के लिए हॉर्न बजा रहे हैं।”
वीडियो वायरल हुए — यह ग़ुस्सा अब केवल शिकायत नहीं, जनता की चेतावनी बन गया।
मुंबई: वह वित्तीय राजधानी जो रुक नहीं सकती, फिर भी रुकती है
9 अक्टूबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ग्लोबल फिनटेक फेस्ट के उद्घाटन कार्यक्रम के कारण बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स और वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पर रोक लगाई गई। 1000 से ज़्यादा पुलिसकर्मी तैनात रहे और ‘हल्की असुविधा’ के बावजूद लोगों को 30–45 मिनट की देरी झेलनी पड़ी।
एक ऐसे शहर में जहाँ समय ही पैसा है, ये कुछ मिनट भी महंगे पड़ते हैं — ट्रेनें लेट हुईं, मीटिंग्स टलीं, डिलीवरीज़ रुकीं।
स्थानीय व्यापारियों ने तंज कसा —
“अंदर देश की डिजिटल तरक्की मनाई जा रही थी,
बाहर शहर डिजिटल नहीं, ठहरा हुआ था।”
बेंगलुरु: तकनीकी राजधानी, राजनीति और विशेषाधिकार से जकड़ी
18 अक्टूबर 2025, दीपावली से पहले, मंत्री यात्राओं और राजनीतिक कार्यक्रमों ने हेब्बल, मैसूर रोड जैसे रास्तों को जाम कर दिया। ट्रैफिक पुलिस ने खुद कहा — “VIP काफ़िले जाम को और बढ़ा देते हैं।”
3 नवंबर को “टनल रोड प्रोजेक्ट” पर बीजेपी का मौन प्रदर्शन हुआ — भीड़ ने शहर को फिर रोक दिया। पर्यावरण विशेषज्ञों ने चेताया — “यह सिर्फ़ जाम नहीं, स्वास्थ्य पर हमला है।”
विशेषाधिकार का राष्ट्रीय पैटर्न
देशभर में नतीजा एक ही रहा — सत्ता तेज़ चलती रही, जनता रुकती रही। चाहे दिल्ली की सरकारी गलियाँ हों या बेंगलुरु की टेक सड़कों, आम नागरिक ने इसकी कीमत दी — समय, पैसा, और भरोसे की।
2025 के सोशल मीडिया ने इस ग़ुस्से को आवाज़ दी — रील्स, वीडियो, और हैशटैग जैसे #RoadsForPeople और #StopVIPJams हर वीआईपी यात्रा के बाद ट्रेंड करने लगे।
विशेषज्ञों ने आसान समाधान सुझाए हैं —
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तय VIP कॉरिडोर
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छोटे काफ़िले
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पहले से डिजिटल चेतावनी
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सीमित समय की अनुमति
पर ज़्यादातर शहर अब भी वही पुरानी नीति अपनाते हैं — सभी के लिए रोक, और कुछ के लिए रास्ता खुला।
