भारतीय राजनीति के उथल-पुथल भरे परिदृश्य में, जहां नेता मानसून की छाया की तरह उभरते और गायब हो जाते हैं, बालासाहेब ठाकरे एक चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे। एक प्रखर हिंदुत्ववादी और मराठी अस्मिता के निष्ठावान रक्षक, उन्होंने विवादों और गलतफहमियों के तूफानों का सामना अटूट हिम्मत और दृढ़ संकल्प के साथ किया।
आलोचक अक्सर उनके तीखे बयानों और कथित सांप्रदायिक रवैये के लिए उनकी आलोचना करते रहे, लेकिन ये आरोप ज्यादातर राजनीतिक विरोधियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए। इनसे हिंदू एकता और क्षेत्रीय स्वाभिमान के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा पर पर्दा पड़ गया।
फिर भी, 2025 में उनके जन्मदिन पर जब श्रद्धांजलियां उमड़ती हैं, उनकी विरासत को लेकर वैचारिक टकराव बरकरार है। मुंबई में उनके बहुप्रतीक्षित स्मारक का उद्घाटन इस सच्चाई को रेखांकित करता है कि बालासाहेब के आदर्श आज भी जीवंत हैं। वे उस निष्ठावान देशभक्त की याद दिलाते हैं, जिसने बिना किसी समझौते के लाखों दिलों को एक सूत्र में बांधा।
आज, जब विचार कमजोर पड़ रहे हैं और गठबंधन बिखर रहे हैं, एक ऐसे साहसी, करिश्माई और राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस, वह शख्सियत अब हमारे बीच नहीं; सिर्फ एक खामोश खालीपन रह गया है, जो हर साल और गहरा होता जाता है।
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व में गढ़ी गई विरासत
बालासाहेब ठाकरे की यात्रा मंचों से नहीं, बल्कि कलम की नोक से शुरू हुई। एक प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट और पत्रकार के रूप में, उन्होंने अपनी कला को हिंदू पुनर्जागरण और मराठी अस्मिता के मिशन में ढाल लिया। उनके रेखाचित्र और लेखन ने न केवल समाज को झकझोरा, बल्कि एक आंदोलन की नींव रखी।
19 जून 1966 को उन्होंने शिवसेना की स्थापना की, जो “भूमिपुत्रों” की आवाज बनी। मराठी युवाओं के आर्थिक असंतोष को, जो अपनी ही धरती पर उपेक्षित महसूस करते थे, बालासाहेब ने एक सशक्त दिशा दी। यह आंदोलन, जो शुरुआत में क्षेत्रीय था, जल्द ही एक सर्व-हिंदू अभियान में बदल गया, जो उनके व्यापक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दृष्टिकोण को दर्शाता था।
ब्रिटैनिका के अनुसार, ठाकरे की राजनीति ने आक्रामक हिंदुत्व और राष्ट्रीय गौरव को मिलाकर एक ऐसा मंच बनाया, जिसने विविध समुदायों को आस्था और आत्मसम्मान के साझा सूत्र में पिरोया। उनकी आवाज ने लाखों लोगों को एकजुट किया, जो एक नई पहचान की तलाश में थे।
मराठी गौरव का पुनर्जागरण बालासाहेब का सबसे अमिट योगदान रहा। मुंबई के तीव्र औद्योगीकरण की लहर में, उन्होंने मराठी अस्मिता को न केवल संरक्षित किया, बल्कि उसे नया जीवन दिया। उनके नेतृत्व में शिवसेना ने वामपंथी यूनियनों के प्रभाव को कम किया, स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के दरवाजे खोले और मजदूर विवादों में मध्यस्थता कर शहर की अर्थव्यवस्था को स्थिरता दी।
1995–1999 के शिवसेना-भाजपा शासन में, बालासाहेब की मशहूर ‘रिमोट कंट्रोल लीडरशिप’ ने मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे, 50 से अधिक फ्लायओवर और एक आत्मनिर्भर महाराष्ट्र के आत्मविश्वास की नींव रखी। उनकी दूरदृष्टि ने विकास को नई गति दी। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी उन्हें ‘अद्वितीय व्यक्तित्व और अटल राष्ट्रभक्ति’ वाला नेता करार दिया और उनके निधन को भारतीय राजनीति में एक युग का अंत बताया।
कर्मप्रधान हिंदुत्व: शब्दों से नहीं, कर्मों से रचा गया बालासाहेब ठाकरे का हिंदुत्व महज नारों तक सीमित नहीं था—यह थी कर्मों में रची-बसी आस्था। 1990 में, जब देश कश्मीरी पंडितों के दर्द को स्वीकारने से कतरा रहा था, उन्होंने विस्थापित पंडित विद्यार्थियों के लिए इंजीनियरिंग सीटें आरक्षित करवाकर एक मिसाल कायम की। यह कदम सिर्फ राहत नहीं था, बल्कि सामूहिक एकजुटता और आत्मविश्वास का प्रतीक बन गया, जो समाज को जोड़ने की उनकी दूरदृष्टि को दर्शाता है।
उनकी वीर सावरकर के समर्थन की मुहिम ने हिंदुत्व की बौद्धिक और ऐतिहासिक जड़ों को फिर से जीवंत किया। उन्होंने उन कथाओं का डटकर मुकाबला किया जो राष्ट्रवादी प्रतीकों को हाशिए पर धकेलना चाहती थीं, और एक ऐसी वैचारिक जमीन तैयार की जो हिंदुत्व को नए सिरे से परिभाषित करती थी।
वीरता के वे कार्य जिन्होंने राष्ट्रभक्त को परिभाषित किया
बालासाहेब ठाकरे के राष्ट्रवाद का सबसे प्रेरक उदाहरण था INS विक्रांत को बचाने का उनका साहसिक हस्तक्षेप। भारत का पहला विमानवाहक पोत, जिसने 1971 के युद्ध में गौरवशाली भूमिका निभाई, 1997 में नीलामी की कगार पर था। तभी बालासाहेब ने दखल दिया और 6.5 करोड़ रुपये का अनुदान सुनिश्चित करवाया, ताकि इसे तैरते संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया जा सके। India Today और Deccan Herald ने इसे उनकी दूरदर्शी राष्ट्रवादी पहल बताया—एक ऐसा कदम, जो तब उठाया गया जब संस्थाएं खामोश थीं, और जिसने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा का जज़्बा दिखाया।
इसके अलावा, 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान, जब दिल्ली आग में जल रही थी, मुंबई शांति का टापू बनी रही। बालासाहेब ने शिवसेना कार्यकर्ताओं को सिख परिवारों की हिफाज़त का सख्त आदेश दिया। इस मानवीय कदम के लिए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने व्यक्तिगत रूप से उनका आभार जताया। Times of India और Rediff ने दर्ज किया कि उनकी कड़ी निगरानी की वजह से महाराष्ट्र में कोई बड़ा हिंसक घटनाक्रम नहीं हुआ। यह घटना उनके हिंदुत्व की सच्चाई उजागर करती है—यह संकुचित नहीं, बल्कि न्याय और धर्म के सिद्धांतों से प्रेरित था।
एक युग से परे व्यक्तित्व- 17 नवंबर 2012 को बालासाहेब ठाकरे के निधन पर लोकसभा और राज्यसभा ने अपनी कार्यवाही स्थगित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी—ऐसा सम्मान जो आमतौर पर केवल सांसदों, स्वतंत्रता सेनानियों या राष्ट्राध्यक्षों को मिलता है। राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने उन्हें “जनता में गर्व की भावना जगाने वाला करिश्माई नेता” बताया। संसदीय अभिलेख बताते हैं कि गैर-सांसद के लिए ऐसा सम्मान अत्यंत दुर्लभ है—यह उन्हें बाल गंगाधर तिलक जैसे महान राष्ट्रनायकों की कतार में खड़ा करता है।
विवादों की परछाइयाँ: उज्ज्वल विरासत के साए में
आलोचक अक्सर बालासाहेब की विरासत को सांप्रदायिक राजनीति तक सीमित कर देते हैं—कभी 1992-93 के मुंबई दंगों का हवाला देकर, तो कभी उनके ‘मज़बूत नेताओं के प्रति प्रशंसा’ को विवाद का मुद्दा बनाकर। लेकिन ये चित्रण अधूरे हैं, क्योंकि ये अक्सर राजनीतिक स्वार्थों और पक्षपातपूर्ण मीडिया की रंगत में ढल जाते हैं।
श्रीकृष्ण आयोग ने भले ही उनके भाषणों को उत्तेजक ठहराया, लेकिन जैसा Frontline ने विश्लेषण में कहा—वे दंगे जटिल थे, जिनमें पुलिस की पक्षपातपूर्ण भूमिका, राजनीतिक दखल और प्रतिक्रियात्मक हिंसा की शृंखला शामिल थी। बाद में ठाकरे ने हिंसा पर खेद जताया और 1993 के बम विस्फोटों के बाद मुंबई के मुस्लिम नागरिकों की एकता की सार्वजनिक प्रशंसा की। यह दिखाता है कि उनके भीतर रणनीति थी, न कि द्वेष; विचार था, न कि सांप्रदायिक कटुता।
उनके अंतरराष्ट्रीय नेताओं पर बयान, जिन्हें आलोचक कट्टरता का सबूत मानते हैं, दरअसल नेतृत्व और राष्ट्रीय संकल्प पर उनके विचार थे। BBC News ने उन्हें “जनविवादों के निर्णायक और श्रमिकों के रक्षक” कहा, जबकि Economic Times ने उन्हें एक ऐसा व्यक्तित्व बताया, जिसने “अतिशयोक्ति को आत्म-व्यंग्य का हथियार” बनाकर शोरगुल वाले लोकतंत्र में ध्यान खींचने की अनूठी कला रची।
उनके प्रवासी-विरोधी अभियानों को अक्सर विदेशी-विरोधी करार दिया गया, लेकिन उनका मूल मकसद मराठी युवाओं के आर्थिक हितों की रक्षा था—एक तरह का आर्थिक संरक्षणवाद, जो बाद में व्यापक हिंदुत्ववादी विमर्श का हिस्सा बना, पर कभी वैमनस्य का प्रतीक नहीं रहा। कुल मिलाकर, ये विवाद उनके विचारधारात्मक दोष नहीं, बल्कि उनके अटल राष्ट्रवाद का स्वाभाविक परिणाम थे—वह कीमत जो हर निडर नेता को चुकानी पड़ती है।
भारत के दक्षिणपंथ का अमर प्रतीक
बालासाहेब ठाकरे का जीवन निष्ठा, निर्भीकता और वैचारिक स्पष्टता का प्रतीक था। उन्होंने आस्था को शासन से जोड़ा, और यह सुनिश्चित किया कि हिंदुत्व और मराठी अस्मिता महज नारे नहीं, बल्कि जीवंत जनांदोलन बनें।
उनकी उपलब्धियाँ—INS विक्रांत की रक्षा, संकटग्रस्त समुदायों का संरक्षण और संसद द्वारा मिला दुर्लभ सम्मान—उनकी आलोचनाओं से कहीं अधिक वज़नदार हैं। यह रिकॉर्ड उनके राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व की साक्षी है।
आज, जब विश्वास अक्सर सुविधा के आगे झुक जाता है, बालासाहेब का अडिग राष्ट्रवाद एक स्मरण और चुनौती दोनों है। जैसा कि The Hindu ने लिखा—
“यहां तक कि उनके विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि उन्होंने राष्ट्रवाद पर कभी समझौता नहीं किया।”
उनकी आवाज़—तेज़, व्यंग्यपूर्ण और अटल—भले ही अब मौन हो, लेकिन उनका गर्जन भारतीय राजनीति के गलियारों में आज भी गूंजता है। यह गर्जन हमें याद दिलाता है कि साहस ही सच्चा नेतृत्व है, और निडरता ही राष्ट्र की आत्मा।
